गुनाहों के दलदल में फंसा हुआ, मैं इक अदना सा बंदा हूं,
या इलाही हुक्म-ए-उदूली करता, मैं कितना ही गंदा हूं।
खताओं की इस भीड़ में खुद को, अक्सर पाता हूं खोया,
मेरी निगाहों में है धुंधला, दिल में बसा हर इक फंदा हूं।
मगर इस दिल में अब भी एक आस का, दीपक जलता है,
कि शायद तेरी रहमत से, मैं फिर से बन सकूं नेक बंदा हूं।
तेरी दरगाह में सर झुकाता रहूं, तौबा की चादर ओढ़ लूं मैं,
"या इलाही" मुझे बख्श दे, तेरा ही तो मैं एक बंदा हूं।
जो इक बार तेरी इनायत हो जाए, तो ये जहां भी रोशन हो,
मैं वो पत्थर नहीं, जो पानी में तैर सके आंखों से ओझल हो
हयात-ए-सफर की आपाधापी में, जब-जब भी ठोकर खाया,
तेरी रहमत को याद कर, खुद को संभाला मैंने, खुद को पाया।
बारिश की बूंदों में जैसे- जैसे ज़मीन पर पानी बरसता है
तेरी बख्शिश की चाह में, हर पल मेरा ही ये दिल तरसता है।
ये जानता हूं कि तेरी मेहरबानी है मुझ पर ला-महदूद, बेशुमार
है इस दिल को ही हर-पल, हर-लम्हा तेरी एक नज़र का इंतज़ार।
तेरी चौखट पे आकर ही जो मैंने अपने सर को झुकाया है,
उसी झुकी नज़र से मैंने फिर जहां को नया-नया पाया है।
गुनाहों के दलदल में फंसा हुआ, मैं इक अदना सा बंदा हूं,
या इलाही हुक्म-ए-उदूली करता, मैं कितना ही गंदा हूं।
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