किसी मार्ग पर झुका बूढा पेड़ ना ही किसी मृत्यु का धारक है, दो बूंद के लिए वो थोड़ी ना किसी पर आश्रित है, प्रकृति के अल्परूपों में मिला हुआ हर बीज में वो व्यापक है शायद यह अन्त ही आरंभ है...।
आदरणीय सृष्टि के रचयिता, इंसान बनने के लालच में मैंने 84 लाख योनियों के चक्रव्यूह को तोड़ा था। क्या उसी के सजा में हैवानियत हुई? इन इंसानों से तो बाकी योनियां ही बेहतर थीं।
जिस पेड़ में कल तक पनाह थी आज उसे हटाने की कोई तो वजह थी चहलकदमी की उस सन्नाटे में हल्की सी हवा थी, किसी के आशियाने को कुचलकर न जाने कौन सी इमारत बनाने की रज़ा थी?