मानती हूँ खुद को बहुत ही मजबूत,पर ना जाने क्यों डर जाती हूँ
मिलती हूँ जब किसी अजनबी से अनजान रास्तों,पर पल भर को सिहर जाती हूँ
अगले ही पल संभालती हूँ खुद को,अदम्य साहस से भर जाती हूँ
सोचती हूँ नारी तो है दुर्गा काली का अस्तित्व,यह सोच मुसीबत से लड़ जाती हूँ
नहीं मांगती सहारा उन तमाशबीनों का,जो सिर्फ भीड़ की पहचान होते है
खुद की खुद का सहारा बन,सिरफिरों से लड़ जाती हूँ
गली कूचे हो या भारी बाजार कहीं न कहीं शोहदों की नजर में गड़ ही जाती हूँ
जवाब देना आता है अच्छे से और जवाब दे कर आती हूँ
नज़र अंदाज़ कर उन्हें न्यौता नही देती,आज की धाकड़ नारी हूँ
पहली गलती भी माफ नही करती सजा दे कर ही आती हूँ।
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