बहुत सारी बातें हैं,
बहुत सारी शिकायतें भी हैं तुमसे।
पर अब क्या,
तुम्हें बात कर या तुम्हारी गलतियों को बता कर,
क्या जीत जाऊँगी,
और डरती हूँ कहि यकीन ना हो,
जाये कि मैं ही गलत थी,
रोज सोचती हूँ गलती किसकी थी ।
भरोसा करने वाले कि या जिसने भरोसा दिलाया
ये ख्याल मुझे हर बार गुमराह कर देते हैं ।
ना मैं जीतती हूँ और ना ही हारती हूँ
बल्कि गम की खाई के और करीब आ जाती हूँ।
अब किस किस से कितनी बातों के लिए शिकायत करूँ।
अपनी ही कठोरता से डरती हूँ।
जब याद करती हूँ बचपन,
तब भी कोई वजह नहीं दिखती मुस्कान की।
वो पलंग के नीचे सोना ,
अपने ही डर से लड़ना
कहाँ बदला है कुछ भी।
शायद गलती किसी की नहीं है।
उस किस्मत की भी नहीं,
चमकता सितारा दिया है उसने
राह भी दिखते हैं वो मुझे।
शायद उस खाई ने अब मुझ में जगह बना ली है
जितनी भी रौशनी मुझ में भेजे है वो सितारा
खो जातें है किरनपुंज उनके मेरी ही गहरी खाई में।
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