Yatendra Tomar   (यतेन्द्र तोमर)
60 Followers · 60 Following

read more
Joined 14 September 2020


read more
Joined 14 September 2020
6 JUL 2023 AT 22:42

पहचान

तुममें तुम कितने हो?
तुम गोरे हो या कि काले हो,
आदमी हो या कि औरत हो,
बच्चे हो या कि बूढ़े हो,
पर तुममें तुम कितने हो ?

हिंदू हो या कि मुस्लिम हो,
शहरी हो या कि देहाती हो,
धनी हो या कि निर्धन हो,
पर तुममें तुम कितने हो?

तुम देशी हो या कि विदेशी हो,
दर्ज़ी हो या कि व्यापारी हो,
मालिक हो या कि नौकर हो,
पर तुममे तुम कितने हो?

सुखी हो या कि दुःखी हो,
नैतिक हो या कि अनैतिक हो,
चाहे भले तुम जो भी हो,
पर तुममें तुम कितने हो?

सब कुछ ही तुमने बाहर से सोखा,
तुम्हें तन, मन और समाज ने रोपा।

हक़ीक़त में तुम बस उधार का एक चेहरा हो,
जिस पर तुम अपनी मालकियत का धोखा हो।

-


6 APR 2023 AT 23:40

बाहर से तुम वानर हो
भीतर ज्ञान-गुण सागर हो।

भुजाओं में अतुल शक्ति है
मन में राम की भक्ति है।

अपनी ही प्रकृति के परे जाते हो,
हर सम्भावना को लाँघ जाते हो।

विद्या-विवेक के दाता हो
तुम समूचे वेदांत के ज्ञाता हो,

सर्वस्व तुम्हारा राम को समर्पित है
निज हेतु तनिक भी नहीं रक्षित है।

तुम्हें, न कोई पाश, न बंधन है
प्रेम में मिला राम का आलिंगन है।

जिसका "स्व" राम में खो गया,
वो हनुमान हो गया।।

-


8 MAR 2023 AT 12:09

हर रंग चढता है फिर ढल जाता है
चेहरा फिर वही बे-रंग हो जाता है।
कोई ऐसा रंग चढ़ा लो इसपर,
जो फिर छूटे न छुटाता हो,
जो रग-रग में घुल जाता हो,
जो शब्दों में बस जाता हो,
मन को निर्मल कर जाता हो,
रोशनी से भर जाता हो,
जो कभी हल्का न पडे
और हर दिन रचता जाता हो।

-


25 FEB 2023 AT 22:42

दरवाजे के बायीं ओर है एक डोरी,
बैठी जिस पर चिड़ियों की टोली।

कुछ मुख को पूरव में करे हैं
कुछ मुख पश्चिम में धरे हैं,
कुछ एकटक ऊँघ सी रही हैं,
नहीं! नहीं! शायद स्तुति कर रही हैं।

उनके भारहीन भार से डोरी झुक गई,
सीधी डोरी पर चाँद की छवि बन गई।

अब रोशनी भी झरोखों से उतर क्षितिज को चली,
देख यह चिड़िया भी घरोंदो को उड़ी।।

-


5 OCT 2022 AT 17:55

दशहरे पर रावण अधजला ही रह गया
बस खोल ही जला ,मूल शेष रह गया

यह अधजला रावण पुनः लौट आता है
रहता है छिपा भीतर, बल हमसे पाता है

रावण ,सब भेष हमारे ही धरता है
मुखोटे जितने हमारे,सिर उतने रखता है

निज दोषों पर अगर दृष्टि डाली नहीं
निज दोषों की अगर सफाई नहीं
तब कौन राम को जानेगा
कैसे रावण को पहचानेगा

मर्म को त्यौहारों के जाना नहीं
सरल प्रकट भाषा को पहचाना नहीं

अर्थ प्रतीको का विकृत हो गया
मानो सब अभिशप्त हो गया

गूढ़ सार कहीं लुप्त सा हो गया
दशहरा भी मुर्दा परम्परा भर रह गया
आज पुनः उसी लाश को कांधा दिया
आज उसी लाश को पुनः ढोया गया

यूं परम्परा से कोई निज विरोध नहीं
बस हनन होते धर्म के सम्वर्द्धन में नही

जब ज्ञान दीप उदित होगा
तब रावण का वध होगा
तब रावण दहन खरा होगा
उस दिन दशहरा असल होगा।

-


29 NOV 2021 AT 22:37

बाहर का सन्नाटा ही काफ़ी होता है,
भीतर के शोर को सुनने के लिए!!!

-


30 OCT 2021 AT 12:54

छलिआ के झांसे में फंसे मत जाना।।

यह नये नये रुप धर लेता है।
खुद हमको ही छल लेता है।।

यह टेढ़े-मेढ़े नाच नचाता ।
कभी फिसलता फिर पछताता।।

अगर चाहते हो इससे बचना।
तो विवेक का अंकुश रखना।।

-


25 OCT 2021 AT 16:12

कई बार,
जब हम छोटे-छोटे मोह में पड़ जाते हैं,
मोह के बाजार में ठगे जाते हैं।
या कहें कि बिक जाते हैं।

ऐसे में चोट दुगनी हो जाती है,
जब हमें धोखा हो
खुद को समझदार मानने का।

-


15 OCT 2021 AT 14:57

दशहरे पर रावण अधजला ही रह गया
बस खोल ही जला ,मूल शेष रह गया

यह अधजला रावण पुनः लौट आता है
रहता है छिपा भीतर, बल हमसे पाता है

रावण ,सब भेष हमारे ही धरता है
मुखोटे जितने हमारे,सिर उतने रखता है


(शेष अनुशीर्षक में)

-


30 SEP 2021 AT 21:34

अपनी ही महफिल में,
मन बन बैठा बंजारा है!
भूला है पता बस घर का,
और याद उसे जग सारा है!!

नये-नये रूप धरे फिरता है,
खुद को छलता रहता है!
याद पिया की है आँखों में,
पर आँखो में पर्दा रहता है!!

हर एक साँस उसी को है,
क्या साँसो को गिनता रहता है!
कानों को चाह उसी की है,
तू जो भी सुनता रहता है!
हर एक बात उसी की है,
लफ़्ज़ों से तू जो कहता है!
हर एक कशिश उसी की है,
तू नाम भले जो देता है!
तू नाम भले जो देता है!

-


Fetching Yatendra Tomar Quotes