****अकड़****
हर समय अकड़,
आखिर कहां लेकर जाओगे इतनी अकड़।
कभी सोचा है , कि कहां होगा इसका अंत।
या चलती रहेगी जीवन परयंत।
कहां तक संभाले रखोगे , अपने गुरूर को,
बेवजह की ज़िद, बढ़ा देगी नासूर को।
अकड़ तो इतनी ज़ालिम है, कि नज़र चुरानी पड़ती है।
कहना हो फिर भी होठों पर, कड़ी लगानी पड़ती है।
जानते तुम भी तो हो , कि गलत तब कौन था?
कौन किसको मना रहा था, कौन अनवरत मौन था?
कौन था जो रात-दिन, शुभ की दुआऐं मांगता था?
कौन था जो कुल की मर्यादा, को नित्-नित् लांघता था?
फिर भला क्यों भूल को, स्वीकार कर लेते नहीं?
भावना के ज्वार को , क्यों शांत कर देते नहीं?
जानता हूं मैं ,कि तेरा भी हृदय बेचैन है।
दिल पे तेरे बोझ है, अश्रु से लबालब नैन है।
चाहती तुम भी तो हो, कि ये समय जल्दी कटे।
रिश्तों की दूरी मिटे , और दिल की गहराई घटे।
तो चलो दोनों अकड़ को, छोड़कर आगे बढ़ें।
तुम भी ज़िद को छोड़ दो, तो हम भी ज़िद पर ना अड़ें।
अबके जो रिश्ता बने , तो और भी गहरा बने।
कोई गर गुस्से में हो , तो दूसरा बहरा बने।
हो अगर राज़ी , तो रिश्तों को नई शुरुवात दो।
छोड़ कर जिद को, सफर में आओ मेरा साथ दो।
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