बडी़ अनूठी सी एक बात है, यूँ सोच रहा है चित्त मेरा|
तेरे भीतर जो भाव हैं, है ये स्वाभिमान या अहंकार तेरा|
करती हूँ याचना तुझसे मैं आज,
सुनले मेरी एक बात तू आज|
जो होते तुम स्वाभिमानी तो,
ना करते तिरस्कार यूँ औरों का|
पर हो बहुत ही अहंकारी तुम,
तो भोग ना पाए सत्कार कभी|
जो होते तुम स्वाभिमानी तो,
ना करते दुरुपयोग यूँ ळान का|
पर हो बहुत ही अहंकारी तुम,
अतः हर ळान तेरा निर्थक है |
जो होते तुम स्वाभिमानी तो,
ना जाते साथ यूँ छोड़कर|
पर हो बहुत ही अहंकारी तुम,
हर दफ़ा लौटकर आ जाते हो|
जो होते तुम स्वाभिमानी तो,
ना रचते विध्वंस वैभव की खातिर|
पर हो बहुत ही अहंकारी तुम,
यश भी तेरा ना हो पाया|
आज नहीं तो कल सही,
शब्दों से नहीं तो अनुभव से सही|
होगी यथार्थ से भेंट तेरी,
जिसे समझा है स्वाभिमान तुमने,
वो तो तेरा अहंकार है |
जो मिटा दिया इस मद को तूने,विद्वान तुम ही है कहलाओगे|
जो फेंक दिया इस दर्प को तूने, स्वर्ग तुम ही है पा जाओगे|
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