Vivek Kant   (Paraag)
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अंश !
इस अनंत आसमान
की परिधि का !
Joined 5 February 2017


अंश !
इस अनंत आसमान
की परिधि का !
Joined 5 February 2017
15 JUL 2020 AT 9:43

न है इख़्तियार मेरा मेरी ही साँसों पर
तुम्हारे चले भर जाने से ताज्जुब क्या !

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14 JUL 2020 AT 7:27

जिधर गवा दी नींद सब ने किसी के प्यार में
उधर हम सो लिए एक्स्ट्रा तुम्हारे ख़्वाब के इंतज़ार में |

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24 JUN 2020 AT 23:56

सीखिए सलीक़ा अब बस बात करने का
किसी के काम से अब किसी को काम नहीं |

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23 JUN 2020 AT 19:48

दिन भर सारा
शोर शराबा
धूल धुआं
और बेताबी |

फिर शाम सुहानी
जैसे तुम
खूब सुकून
और चाय की प्याली |

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1 JUN 2020 AT 15:52

बेक़रारी ही अब क़रार लगता है
जाये छोड़कर वही यार लगता है |

क्यूँ करें शिकायत क्या ही सवाल करना
कौन सा वो सरकार लगता है |

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26 MAY 2020 AT 23:37

ना होता कुछ
तो कैसा होता ,

ना होने पर
जैसा होता है

पूरा पूरा वैसा होता |





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16 DEC 2019 AT 0:59

वैसे ही जैसे
दिसंबर में खिलती है धूप ,
तुम आज अचानक
यूँ आयी |

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30 SEP 2019 AT 2:42

खेलती हैं ये हवाएं
तुमसे जानबूझकर !
ज़ुल्फ़ों को बिखरा दिया
संवारा तुमने जानबूझकर !

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19 SEP 2019 AT 17:25

जब समय था सुकून था
तब लिखता था बाएं हाथ से |

आज फिर लिखा मैंने
आरे - तिरछे अक्षरों में
तुम्हारा नाम और
बनाया एक दिलनुमा दिल |

बाएं हाथ से |



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13 SEP 2019 AT 22:34

शब्द छूट जाएँ जब
तब निशब्द गाऊंगा
शायद तुम सुन लो !

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