तुम दिन का प्रकाश नहीं,
ना लंबी अंधेरी रात हो।
तुम भोर की सुर्ख लालिमा,
साँझ की मधुर बेला हो।
क्या इस मिलन की उपमा दे सकेगा कोई?
क्या इस संगम को रेखाओं में विभाजित किया जा सकता है?
नहीं...!
तुम ही तो इस सौंदर्य की रचयिता हो।
अत्यंत मोहक, सुगंधित, पवित्र, कोमल, चंचल, अविरल तरल...कह तो सकता हूं तुम्हें; किन्तु तुम इन सबसे परे, अंत:मन के निर्वात मंडल में विचरण करती और कांतिमय हृदय के क्षीरसागर में गोते लगाती सिर्फ एक रूप हो!
तुम "साहिबा" हो - तुम "साहिबा" हो।
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