"ना कफन ओढ़ने दिया ना कांधा दे पाए
प्यार से महज आखरी दफा ना अपनो को देखने दिया ..
ना जाने कौनसा रिवाज, ले आया ये महामारी नया
ना समशान घाट ना कब्रिस्तान देखा ..
बस दिखा तो किसी का अपना छीनते रोता बिल
बिल्लाता ..
किसी के सर से "पिता", का साया उठ गया तो कही "ममता"की छाया उजड़ गई ,बड़े "भाई "का साथ छुट
गया ..
किसी की "बहन" के ,लिए भाई का कलाई
अधूरा रहे जाएगा ..
बहुतों ने अपनो को चद, दिनों में पलक झपकते
ही खोया है जैसे मुट्ठी में ,भरी रेत कुछ मिनटों में फिसल सी गई ...
काश ये सिसिला खत्म हो जाए..
यहां हम इंसानों की जानो की कोई कीमत नहीं है ..?
इन सरकारों के लिए महज हम बस गिनती है जो कीड़ों
मौकोडो की तरह.. जो इस्कदर मिट्टी में मिलते जा रहे है"💔
-vishu
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