उल्फत रही, दर्द रहा, फिर पाया है तुम्हें मैंने, कि तुम आए ही मुझे जख्मों से जुदा करने को; ऐसी बेइंतेहांई की हद तलक चाहा है तुम्हें मैंने, कि सारी खुदाई इकट्ठा है तुम्हें मेरा करने को।
सराहा ही करो मुझे हमेशा की तरह ही, क्योंकि अब आदत है सराहे जाने की। तुमने सराहते-सराहते मुझे फर्श से अर्श तक, तो कभी जिस्म से रूह तक, चलना- संभलना सिखलाया है। तुमसे सालों सराहे जाने के बाद, उस सराहना से आए बदलाव मुझमें इतने साफ दिखते हैं, कि तुम्हारी सराही इस नाचीज़ को अब दुनिया भी सराहती है; लड़कियां बनना चाहती हैं मुझ सी और लड़कों को चाहिए मुझ सी ही कोई, जो उन्हें सराह कर संजीदा कर दे।
एक छुअन से सारे रोमों को कंपित करने वाले, अवसादों के ऊंचे-ऊंचे भवन खंडित करने वाले, तुमको पाकर साधारण से असाधारण को प्राप्त हुई, मुझ मिट्टी को देवी सी महिमामंडित करने वाले।