Vishakha Joshi  
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Joined 10 January 2019


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13 JUN 2021 AT 0:48

छैनी-हथौड़ा ले बैठे हैं वो मन पर
कहते हैं कुछ अच्छा कर जाएंगे,

पूछते हैं क्या आज थोड़ा खुरच लें
नक्काशी करने तो फ़िर "कल" आयेंगे!

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5 JUN 2021 AT 19:00

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28 MAY 2021 AT 18:45

तेरी आँखों से दिखाई शाम को मैं देखूँ तो क्या
तुझे सुनहरी और मुझे ज़र्द नज़र आती है

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7 MAR 2021 AT 2:13

गर पिघल जाऊँ तो समेट लेना
बिखर जाऊँ तो बटोर लेना
दरक जाऊँ तो जोड़ देना
तेरा हिस्सा मुझमे कहीं छोड़ देना

थम जाऊँ तो साथ देना
गिर जाऊँ तो हाथ देना
उंगलियाँ दूँ तुम थाम लेना
नर्मी वो मुझे तमाम देना

थक जाऊँ तो सुला देना
लंबी नींद से जगा देना
छुप जाऊँ तो झाँक लेना
मिल जाऊँ तो ख़ुद में टाँक लेना

दूर जाऊँ तो खींच लेना
सीने में अपने भींच लेना
हाँ सिमट कर आऊँगी तेरे पास जब
तब मुझको ख़ुद में सींच लेना

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15 SEP 2020 AT 1:32

just before the merriment strikes
or right after the gloom bids adieu,
We are in our purest selves
We are in our truest selves

having the husk before heart-aching cry
or sobbing untill we weigh lighter than fly,
we are in our purest selves
we are in our truest selves

with sparkling eyes when someone manifests love
or the sultry feel while clasping hands for the
very first time,
we are in our purest selves
we are in our truest selves

just before being proven right
or right after being proven wrong
we are in our purest selves
we are in our truest selves

with the thud in heart when wait is over
or the bounce seeing a shooting star
we are in our purest selves
we are in our truest selves

on a journey to life
as long as there are uncertainties
we are in our purest selves
we are in our truest selves

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18 AUG 2020 AT 17:16

इस दफ़ा मैं जब मिलने आऊँगी तुमसे
सिंदूरी उस चद्दर में घटायें थोड़ी कजली होंगीं
आँखों में तब तुम मेरी देखना
शायद थोड़ी उजली होंगीं
बेशक़ होंठों पर चाँद होगा
पर चाँदनी तो पलकों तक निकली होगी

ख़ामोश रहना कुछ देर
सुनना ये साँसें बेहद गहरी होंगीं
एहसास कितने सफ़र में होंगें
बातें कितनी ठहरी होंगीं
फ़िर कुछ वक़्त में वक़्त हो जायेगा
तब तीख़ी कोई सिहरन बह रही होगी
मैं ले जाऊँगी तेरी पोरों की छुअन इस बार
कि आगे कुछ शामें फ़िर सुनहरी होंगीं

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18 JUL 2020 AT 2:18

कोई ज्वार है उठ रहा कैसे शांत हो पायेगा
मैं बैठी हूँ किनारे बहुत साथ बहा ले जायेगा
उठ कर जाऊँ कैसे पैर धँसे है रेत में
हाथों में भी ज़ोर कहाँ है बेजान पड़े कुछ देर से
पर यहाँ ये किनारा मेरा है
आसमान का टूटा हर सितारा मेरा है
मेरी साँसों की आवाज़ है यहाँ
एहसासों की परवाज़ है यहाँ
डूब जाने का ग़म भी होगा मेरे हिस्से
बच जाऊँ तो बटोर लूँगी राहत के क़िस्से
सोचती हूँ रुक जाती हूँ अभी, कभी और निकल आऊँगी
बेहतर हूँ यहाँ, बेहतरीन हो जाऊँगी

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15 JUL 2020 AT 0:01

Pain is never destined to be on the level
where you expect it'll be taken care of

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14 JUL 2020 AT 21:12

खामोशियों की चीख़ सुनते समझते
हमारे कान अल्फ़ाज़ों की धुन सहना ही भूल गए

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3 JUL 2020 AT 15:00

मुझे सीखनी पड़ी एहसासों की बारहखड़ी
दो अक्षर "दुःख" के लिखने की ख़ातिर

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