"उफ़्फ़.... टूट बिखरे हैं शीशे से ख़्वाब मेरे कि- मेरी शाम-ओ-सहर नहीं है ।
हो चला हूँ तन्हा अंदर तलक यूँ, जैसे खुशियों को मेरी कोई ख़बर नहीं है ।।
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कह तो देता मैं सारे ही दर्द अपने, कोई सुनने तो आता कभी क़रीब मेरे,
अफ़सोस... इस दुनिया में मेरा कोई हमदर्द, कोई रहगुज़र नहीं है ।।
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क्या ही रोऊँ, क्या ही बिलखूँ.. अश्क़ भी तो अब मुझे छोड़ सा जाने लगे,
कि- ऐ मौत तू ही लगा ले मुझे गले,तू भी तो मुझे यहाँ मयस्सर नहीं है ।।
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अब बंज़र से दिल को मतलबी चकाचौंध से भला सजाना भी क्या साक़ी,
हो जाऊँ मुक़म्मल ही फ़ना कि- पास मेरे कोई सुकूँ का शज़र नहीं है ।।
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जब अतीत ना हुआ तेरा तो कल क्या ही मेहरबानी करेगा तुझ पर "शाश्वत"
चल.. जा भी तू दूर सबसे कि- अब पल-दो-पल की भी यहाँ बसर नहीं है ।।"
✍️- Vishaal "Shashwat..."
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