मानवीय आकार लिए
अपने अपने धागों से बंधी
निर्निमेष दृष्टि से तकतीं
कठपुतलियां...
व्यग्र कर देती हैं मुझे
एहसास करा जाती हैं ये
एक घनीभूत विवशता का
उस पीडा का कि
क्यों विवश हैं हम
अपने अपने दायरों में
अपने अपने सूत्रों बँध कर ही
गति और अभिव्यक्ति के लिए
अगर स्वतंत्रता है
तो इनके लिए क्यों नहीं ?
क्या ये हैं बस
हमारी उस छटपटाहट का
स्मरण कराने के लिए कि
विवश हैं हम लाचार हैं
एक अपाहिज मानसिकता लिए....
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