खुदा के घर में तो हम रह रहे हैं, मुश्किल यह है की, हम अपने आप को उसकी कायनात के मालिक समझने लगे है. हम उनका शुक्रिया अदा करने के बदले मांगों का तकाजा करने लगे हैं.
बेशुमार हैं ख्वाहिशें उनकी कुवांरी योनियों की, भिन्न भिन्न जायजा उनकी अविरत मनसा है, शायद उनको इल्म ही नहीं, संयम ही संतोष हैं, कामना की क्षुधा तो कभी तृप्त होगी ही नहीं. शायद कुदरत ने अंधेरा इसलिये ही बनाया है, रूप, कुरूप, श्वेता, श्यामा, कुँआरी, अतृप्त, तृप्त योनि का भेद ही अभिन्न और अदृश्य रहे जाये.
हम तुम मिले, तुम ने चुन चुन के मेरी कमियां दुरस्त की, मुझे बेहतर बनाया, अब मुझे तेरी कमियां दिखने लगी है, मुझे क्यूँ दरकार तेरी, कि तुझे मैं बेहतर बनाऊं? जब कई बेहतरीन मेरे सामने हो ......
तुम समझ रहे हो, तू मुझे "कुछ भी करने" की आज़ादी दे रहे हो, पर उसके उपरांत मुझे "कुछ नहीं करने" की आज़ादी भी चाहिये. तुम्हारी दी हुई आज़ादी मुझे कुछ काम की नहीं, वो आज़ादी का भ्रम ही होगा
मैं अपने आप मेरी आज़ादी aquire करूंगी.
अब कुछ समय के लिये हम विरह बांट लेंगे और तुझे "miss नहीं करने" की आज़ादी मैं enjoy करूंगी.
Out burst of a submissive wife to dominating husband.
चलो आज से डायरी के पन्नों पर एक तरफ ही लिखा करें. अगर दो तरफ़ लिखेंगे तो, एक तरफ़ "अप्रिय" निकालते समय पीछे लिखा "प्रिय" भी निकल जायेगा. जब हम लिखते है भावना के बहाव में कुछ भी लिख लेते है, कुछ अन्तराल के बाद ही उचित और अनुचित का भेद कर पाते.