कितना सरल होता न,
यदि हमारे शरीर के ही भाँति
दर्पण हमारी आत्मा का प्रतिबिंब भी दिखा पाता,
या थोड़ा गहरा, पर सच कहूँ तो,
यदि हममें साहस होता,
उस प्रतिबिंब का सामना करने का
अपनी आत्मा पर पडी चोटों को सहलाने का,
अपनी गलतियाँ स्वीकारने का,
अच्छे कर्मों को सराहने का,
चेतना की एक सीढ़ी से दूसरी सीढ़ी पर जाने का।
"तब शायद हम मुख के साथ-साथ आत्मा का श्रृंगार भी अवश्य करते"
'वैसे तो हर आत्मा जन्म के समय से ही परम है,
पर सामने दर्पण होता,
तो वह परमात्मा को कितनी असानी से देख पाती न।'
-विधि।
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