Vaseem Akhthar   (Vaseem Akhthar)
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22 NOV 2021 AT 15:33

1 year of my writing carrier
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& much important
lots of Love
from u guyz🥰

(Read my feelings
in caption too)

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21 NOV 2021 AT 17:47

मेरे अंदर उसकी ऐसी लगन हुई।
धीरे धीरे मुझ में, नुमद-ए-सुख़न हुई।।

मिलती थी मुस्कुरा के, हर बशर से वो,
ये देख मेरे अंदर, कुछ तो चुभन हुई।

कमसिन कली सी थी वो, नज़ाकत भरी हुई,
अब धीरे धीरे क़ातिल, शो'ला बदन हुई।

फिर दिल पे मेरे उसने , ऐसी ज़र्ब दी,
दिल का क़तल हुआ, मोहब्बत दफ़न हुई।

इतना कुछ हुआ भी, लेकिन न कुछ हुआ,
क़िस्सा-ए-इश्क़-ए-अख़्तर, दार-ओ-रसन हुई।

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20 NOV 2021 AT 12:35

लबों ने उसके रुख़्सार से जब की मुलाक़ात।
आशिक़ी में बुलंद हुए कुछ और दरजात।।

उलझ कर गेसुओं में फिर से नहीं सुलझना मुझे,
क़ैद करलूं थाम कर, गुज़रते ये लम्हात।

सर-सराहट हाथो की अब बदन में चढने लगी,
लगा ज़ुतमात में पी लिया, मैंने आब-ए-हयात।

आँखों में डाले आँख और हाथों में डाले हाथ,
सदा यूं ही गुनगुनाते रहें, मोहब्बत के नग़मात।

रखा सीने पे सर उसके, तो एहसास तब हुआ,
बदल रहे हैं होले होले, मेरे ये जज़्बात।

सौग़ात लेकर आई है वस्ल की ये रात,
इक-दूजे के पहलू में, यूंही गुज़रें दिन-रात।

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19 NOV 2021 AT 12:02

जिनकी आमद से घर कर जाती हैं ख़ुशियाँ,
वो प्यार की मूरत बने घर आती हैं बेटियाँ।

आक़ा का फ़रमान है, पक्का उसका मक़ाम है,
अपने साथ जन्नत की बशारत लाती हैं प्यारियाँ।

घर में सरगम से मधुर, बजने लगते हैं जो सुर,
मीठी इनकी बोलियाँ, छन छनाती हैं चूड़ियाँ।

बेटे गर हों चराग़ तो बेटियाँ भि कुछ कम नहीं
लिए आँखों में वक़ार वो सजाती हैं पगड़ियाँ।

घर-आँगन को छोड़ कर जब चली वो जाती हैं,
जैसे चमन को छोड़ कर चली जाती हैं तितलियाँ।

ज़ाहरी नज़ाकत भी है, बातिनी ताक़त भी है,
ग़ैज़ पे जो आगईं, मिटा के रखती हैं हस्तियाँ।

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18 NOV 2021 AT 13:07

जिंदगी में ग़मों का अलग ही फ़साना होता है
भूख का वार प्यार के ख़ंजर से नुकीला होता है

तन्हाई में रो लेते हैं मोहब्ब्त करने वाले
उस से पूछो जो भीड़ में भी अकेला होता है

जिसके हाथों में हो जहााँ, पर हो अपनों से दूर
वो शख़्स मुकम्मल होके भी अधूरा होता है

तीरगी से लड़ते, पहुंच भी जाएं गर उजालों तक
चलते चलते राह-ए-जवानी से बुढ़ापा होता है

ख़ाना-बदोशयों में कट रही यूं ही उम्र हमारी
जहां इक शाख़ दिख जाए, वहीं पे बसेरा होता है

अब और कितने धक्के खाता रहेगा अख़्तर
जिसे तू हक़ीक़ी समझता है, वो छलावा होता है

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17 NOV 2021 AT 11:28

तन्हाई थी चारों तरफ़ पर कुछ शोर हो रहा था
दिल और दिमाग़ का झगड़ा, पुर-ज़ोर हो रहा था

मैं तो ख़ुद को उस से आज़ाद ही कर आया था
पर कुछ ना कुछ मेरे अंदर, घंगोर हो रहा था

जिस बदगुमानी से मैं, कतरा रहा था अब तक
वो धीमे धीमे दिल का, मेरे चोर हो रहा था

बेचैन दिल के दर पर, दस्तक हुई किसी की
उस को ही सोच नादाँ दिल मोर हो रहा था

दिन के किसी पहर में, अख़्तर कहीं मगन था
शब-ए-वस्ल सोच चंदा, चकोर हो रहा था

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16 NOV 2021 AT 16:13

Some Fiddly writings from my Diary!

मुसव्विर की कोई तस्वीर जैसी हो।
महकी हवाओं की ख़ुशबू जैसी हो।।

चुरा न ले कोई इस गुलशन से तुमहें।
मुस्कुराते हुए बिलकुल, फुल जैसी हो।।

सियाह साड़ी पहने बाहर मत निकलना।
बादलों में लिपटे हुए, माहताब जैसी हो।।

फीके रंग भी मुझ को, लगने लगे हैं रंगीं।
फ़लक पर छाए हुए, शफ़क़-ज़ार जैसी हो।।

सहरा में कोई प्यासा, भटक रहा हो तन्हा।
उसके सर पे छाई अब्र-ए-बहार जैसी हो।।

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10 NOV 2021 AT 17:17

تہ بہ تہ زِینَۂ نا اُمید چڑھتے گئے
حق سے پرے باطِل جانبِ منزل بڑھتے گئے
तह-ब-तह ज़ीना-ए-ना-उम्मीद चढ़ते गए
हक़ से परे बातिल जानिब-ए-मंज़िल बढ़ते गए

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6 NOV 2021 AT 17:56

ला फिर इक बार वही बादा ओ जाम ऐ साक़ी
थोड़े तो कम हों अलम-बर्क़-ख़िराम ऐ साक़ी

मेरा साग़र हुआ लबरेज़ तवानाई से
लेकर 'आरिज़ पहुँचे शम्स का फ़ाम ऐ साक़ी

जिस की उम्मीद में गुज़री है जो ता-उम्र मिरी
आया महताब नज़र वो लब-ए-बाम ऐ साक़ी

सब हि मदहोश हैं कोई नहीं शाइस्ता यहाँ
किस को है फ़र्क़-ए-हलाल और हराम ऐ साक़ी

वो अगर हाज़री दे रुख़्सत ए 'अख़्तर' के ब'अद
अर्ज़ करना मिरा आख़ीर सलाम ऐ साक़ी

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20 OCT 2021 AT 2:12

اللَّهُمَّ صَلِّ عَلَىٰ سَیِّدِنَا مُحَمَّدٍ وَعَلَىٰ آلِهِ وَسَلِّمْ

अपनी ज़बाँ से शान-ए-नबी क्या बयाँ करें
क़दमों में उनके अपनी हि हम जाँ-सिताँ करें

आए हैं बनके मज़हर-ए-ताबाँ ख़ुदा के वो
आक़ा की गर्द-ए-पा से तो रौशन जहाँ करें

पुर नूर दिल हुआ है दुरूद-ओ-सलाम से
दुन्या-ओ-आख़िरत को यूँ ही कामराँ करें

शीरीं ज़ुबान नाम-ए-मुहम्मद से हो गई
लब भी हैं चूमें नाम अगरचे बयाँ करें

अख़्तर सजाओ महफ़िल-ए-मीलाद बारहा
काँटे हसद के तोड़ गुले गुल्सिताँ करें

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