ख्यालों में रहती हूं मैं उस दुनियां के, जहां
सभी को लगाव रहे सबसे, बिलगाव नहीं....
इसलिए, मुझे कभी पसंद नहीं रहा
ये पतझड़ का मौसम....
क्यूंकि इसमें हर तरफ़ नज़र आता है बस अलगाव....
वृक्षों से बिलगते पत्ते,
हवाओं से विलगती नमी
कहानी लिख रहे होते हैं इस अलगाव की.....
इस प्रक्रिया में शायद,
प्रकृति गुजर रही होती है
अपने सबसे कठिन दौर से....
इसलिए ही शायद,वो हो जाती है बेजान
झलकता है उसका, रूखा सूखा सा मिजाज़
और अजीब सा खालीपन...
हालांकि,अपने इस उजड़े हुए दृश्य से
सिखा भी देना चाहती है वो हमे
कि अलगाव दु:खपूर्ण है.....
अपनी प्रकृति से, समाज से
परिवार से, मनुष्यता से, अलग होते मनुष्य
जाने कब समझेंगे इसे.....
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