Upendra Sharma   (U.N. Sharma)
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Joined 25 February 2019


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4 APR AT 15:01

हमारे पूरे प्यार के बदले उसका आधा इश्क़ तो मिला,
वो हम में भले ना मिला, उनका चेहरा तो मिला।

कनखियों से ताकते रहते है वो हम को,
उनसे नज़रें ना मिली, इशारा तो मिला।

उन को खुद में समेटने की इच्छा थी हमारी,
वो खुद ना मिले ना सही, उनका नज़राना तो मिला।

इश्क़ की वस्ल में नज्में गढ़नी थी उनपर,
उन्हें मोहलत कहाँ! इसी बहाने दुःख का तराना तो मिला।

ख़्वाहिश थी उनकी फूलों सा महकने की,
उनके लिए हमें ख़ाक-ए-गुलज़ार बनने का बहाना तो मिला।

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2 APR AT 13:38

क्यों तकिये के भीगे कोने की बात करते हो!
क्यों तुम हमारी भी व्यथित रात करते हो!
किनके भग्नावेशों को संभाल के रक्खे हो तुम!
क्यों ख़्वामखा दिल्लगी को मोहब्बत की ज़ात करते हो!

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31 MAR AT 15:35

झूठी तारीफ़ों से थकती नहीं क्या?
मैले मन उनके, तकती नहीं क्या?

थोड़ा सा तो सोचो, उन्हें हमदर्दी क्यों है भला!
ऐसी बचकानी बातों से पकती नहीं क्या?

सुलगती है तृष्णा उनमें तुम्हे पाने की,
धधकते आंगारों से जलती नहीं क्या?

ख़ाक हुई हो कई बार इस भट्टी में,
सही बताओ, तुम मरती नहीं क्या?

क़ैद हुयी बैठी हो इस वीरान धरा पर,
तुम में सांसे उतरती नहीं क्या?

खैर छोड़ो, तुम क्यों परवाह करते हो ‘शर्मा',
दुनिया बेपरवाही से चलती नहीं क्या?

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21 MAR AT 7:26

मैं शाम के साथ ही गुज़र जाऊंगी।
शायद फिर कभी ना लौट पाऊँगी।
याद जरूर आएगी मेरी,
कभी बचपन, कभी खेल, कभी प्रकृति के रूप में।
पर याद रखना,
यादें बीती हुयी बातें हुआ करती है।
अनमोल सौगातें हुआ करती है।
जिनका भविष्य के समंदर से कोई ताल्लुक़ ना हो,
ऐसी बरसातें हुआ करती है।
यादें ...
चैन, सुकूं, ख़ुशी, नाम कई है मेरे।
बिखरे हुए अल्फ़ाज़ हमेशा रहते है घेरे।
क्या पूछना जाकर अब उन लम्हों को,
जिन्होंने मनके मेरे नाम के थे फेरे।
अटके, भटके फिरते है लोग मेरी तलाश में।
मैं कभी मिल भी जाती हूँ उन्हें,
पर अलग लिबास में।
बैठे रहते है वो मेरे आने की आस में।
और मैं...
शाम के साथ ही वापस लौट जाती हूँ।

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19 MAR AT 15:09

तुम ही कहो,
जिहाद कर लूँ क्या।
कुछ इश्क़ कम पड़ रहा है,
तुम्हे याद कर लूँ क्या।
आबाद तुमने किया है मुझे,
एक बार तुम्हारे लिए रब से फ़रियाद कर लूं क्या।
सुबह बीती, दोपहर बीती,
शाम भी बर्बाद कर लूँ क्या।
उखड़ा-उखड़ा सा लग रहा दिल,
कहो तो शादाब कर लूँ क्या।
क़ैद करे बैठा हूँ आसमां को,
तारों को ज़रा आजाद कर लूँ क्या।
डूब जाऊंगा इन गहरी आँखों में,
इन्हें ज़रा पायाब कर लूँ क्या।
तुम्हारा पास आना जला रहा है,
इसे ठंडा ख़्वाब कर लूँ क्या।
धुंधला रहे हैं पुराने पन्ने यादों के,
इनपर ख़िज़ाब कर लूँ क्या।
तुम ही कहो,
जिहाद कर लूँ क्या!
तुम्हे याद कर लूँ क्या!

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4 MAR AT 17:41

पत्थर कितना कोमल होता है!
पानी की ज़रा सी धार से कट जाता है।

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3 FEB AT 14:13

शाम का बिखरा ताना-बाना,
जोड़ कर कल को धुप सुखाना।
देख कर रातें धुंधली-पिघली,
सुबह की निखरी आग जलाना।
धागे बुनते-उधड़ते मोती,
सींप का काजल डाल सजाना।
आऊंगा मैं फिर उसी वक़्त शाम को,
तुम बस शीतल दीप जगाना।

रंगे हुए है दिन सारे,
तुम जाकर नमक से रंग चुराना।
बाँध के तारे चपला को,
इंद्रधनुष से तीर चलाना।
ओढ़कर धानी चुनर धरा की,
नदियों की सौंधी महक छू आना।
संग चलूँगा मैं भी तुम्हारे,
पतंगें-तितलियों की नाव बनाना।

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31 JAN AT 15:01

अंधेरों की ख़्वाहिश में उजालें जले है।
आफ़ताब को कहाँ मयस्सर सर्द-ए-सुकूं,
उसे तो चाँद से मेरा राब्ता खले है।

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28 JAN AT 9:31

चलो, आज तुम शुरुआत करो।
अरे! कभी तो मन की बात करो।
घुट-घुटकर क्यों यूँ जीते हो।
आओ, अपने गम से मुलाक़ात करो।
जानो इसे, पहचानों इसे।
हाँ ये वही है, जो तुम्हें सताया करता है।
हो तन्हाई के साथ जब तुम,
वस्ल यही बिगाड़ा करता है।
ये गम ज़ख्म कुछ यूँ किया करता है,
घड़ी चाहे जो हो,
तुम्हें अपनी जद में रखता है।
लाख कोशिश करो तुम इससे दूर जाने की!
ये बेइंतहां मोहब्बत बस तुमसे किया करता है।
हाँ, थोड़ा जिद्दी है।
अड़ जाता है बार-बार।
महफ़िल हो या मेला,
बिन बुलाए आ जाया करता है।
कब तलक फासलें बढ़ाओगे इससे 'शर्मा' !
ये स्याही बनकर तुम्हारी लिखावट में आ जाया करता है।

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26 JAN AT 15:47

कहते है कि मौत सिर्फ एक बार आती है,
उनकी मुस्कुराने की आदत ने हर बार क़त्ल किया है।

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