"क्रंदन हुआ अन्तस्थ में, भयभीत क्यों ये प्राण हैं,
आबाद थी कल तक धरा, अब बन गई शमशान हैं!
सिसकियाँ भी डर रही, आंखों में शेष अब नमीं हैं,
हर उपाय लगता हैं व्यर्थ, किस रहम की अभी कमीं हैं!
सैलाब भावना का उमड़ता कब श्वासों का पूर्णविराम हैं,
तबाही का मंजर भी वो ही और विश्वास भी वो राम हैं!
मोह में तब्दील रिश्ते सारे लोभ संसार का अनुराग हैं,
भूला मानव मूल्यों को अपने जीवन का अर्थ त्याग हैं!
अपराधों कि बनी शरणस्थली असहनीय दर्द पीड़ा हैं,
दुर्व्यवहार से खोखला करे सोच का घिनौना कीड़ा हैं!"
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