अब उतार देता हूँ,
चादर ईमानदारी वाली,
बहुत बोझ लगने लगा हैं !
चमक इसकी धुंधली सी पड़ गयी हैं,
इसका रंग भी अब किसी को नहीं सुहाता,
मटमैला सा, समय के साथ पुराना सा !
पुरानी चादर और इसके छेद,
देख सकते हैं किसी छलित हर्दय में,
चलो, अब करते हैं कुछ खरीदारी,
कुछ नये भाव पहनते हैं,
आह्...!
नहीं, ये नए रंग...चकाचोंध करते रंग,
आदत नहीं मुझे इन बेईमानी रंगों की,
शायद छूट ना सकेगा मटमैला रंग,
आदत मेरी मतवाली,
सी लेता हूँ हर्दय,
ओढ़ लेता हूँ,
चादर मेरी पुरानी..!
मुश्किल हैं... डगर ये दुष्कर हैं,
हैं बड़ी निराली,
आदत भी हैं मेरी पुरानी !
बस कुछ दिनों की बात हैं,
कुछ दिनों की जाड़ो वाली रात हैं,
इक दिन नया सवेरा आयेगा,
अपने साथ सत्य का दौर भी लायेगा,
चहुँ और अपनी पताका फहरायेगा,
स्वत्र छल और फरेब का नाम मिट जायेगा,
मनुष्य मनुष्य से पहचाना जायेगा !!!
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