हाँ! मेरा घर नहीं है, कोठा बुलाते हैं
जगमगाती रोशनी के उस नुक्कड़ को “रेड लाइट" बताते हैं
दिन में देखा है जिन नज़रों को हिकारत से देखते हुए,
स्याह रातों में वो ही, मेले सी चहल पहल मचाते हैं
सलोनी सूरत, आँखों मे नूर बसा गज़रा सजाती हूँ
रेंगवाती हूँ छाती पे, कई दफ़े टांगो के बीच से लहू भी बहाती हूँ
बंद दरवाज़ों के पीछे, मेरी सिसकियों से जागती है मर्दानगी उसकी
मेरे कराहने और ‘गाली' तक से गर्मजोशी बेधड़क बढ़ जाती उसकी
मेरी चीखें, मेरी छटपटाहट सुन्न पड़ जाती है
“रानी है तू मेरी" शब्दों की दलाली क्या खूब रंग लाती है
भूख मिटाई है मैंने, कोख उजाड़ उजाड़ कर
बटोरें हैं हुस्न पर फिके पैसे, आबरू के पर्दे जला जला कर
हूँ खण्डहर अंदर से, बाहर से सजी हूँ दीवाली हो जैसै
कई बार दुल्हन भी बनी एक रात की, तलबग़ार नही हो मेरा प्रेमी हो जैसे
पैखाने सी जरूरत हूँ मैं ,जमाने के लिए
इस्तेमाल तो करेगें ही गंध मचाने के लिए
माना थूकेंगे, गंदगी बुला मुँह भी बिचकाएगें
पर जोर की तलब आने पर, जनाब और कहाँ जाएगें
है भीडं गंदगी की चारों तरफ मेरे, और हो हल्ला है कितनी गंदगी है भीड़ में
पर मैंने भी देखी है असलियत ‘सभ्य’ सोच की, मुखौटा जो गिर जाता है बिस्तर पर प्यास बुझाने में
वाकिफ़ हूँ मैं, सड़े केले सा हश्र है मेरा, जब बदन गल जाएगा
बस इक टीस मेरे मन की रही, जम़ीर बिकने का सफ़र अनसुना रह जाएगा
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