थी हवाएं शोर की, पंछी को वो नोचती,
"ख्वाबों" की किरणों पर बादलों की होड़ थी|
पेड़ तो बचा नहीं, पर पंछी भी थका नहीं
"आशियाँ" बना समा, चढ़ गया "गरुड़" वहां
बादलों को छोड़ कर, तारों को ओढ़ काऱ,
वक्त की उड़ान भर, कूंच की जहान पर |
डर था दिल में जो भरा , ख्वाब एक वही खरा ।
"आज़ादियों के पंख थे, ख्वाब अब अनंत थे| "
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