देख दुनिया , सब कुछ सीखता रहा , हुनर था वो बिकता रहा...
चलते-चलते गुजर गए सारे रस्ते , जो ठहरा था वो छूटता रहा ...
में यूंही रोज फिसलता रहा , रहम मांग रहम को फरमाता रहा ...
कसूर इतना सा था मेरा की , दस्तूर से दूर रह रिश्ते बनाता रहा ...
क्या करना है परिंदो से दोस्ती कर , दरिंदा था जो अकड़ता रहा ...
उड़ने की जगह आसमान क्या दे , सैलाब से कदम मिलाता रहा ...
पूछो इन बंजर बने घाव से , कब मलहम के लिए बिलखता रहा ...
वो प्यास नहीं जो पानी से मिटती , मैं खून का कतरा गिनता रहा ...
तुम ख्वाबों के चिराग जलाते रहे , वो नींदों की तंखवा लेता रहा ...
यह उम्मीदों का मेला था जिसमे , सबका सब कुछ यूं लूटता रहा ...
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