साधारण सी दिखने वाली लड़कियां,
साधारण सी बन कर रह जाती हैं,
इनकी किताबों में सूखे गुलाब नहीं मिलते,
ना ही इनके लिए कोई ग़ज़ल है लिखता,
बस सज संवर कर थोड़ा रंगना चाहती हैं,
शायद इस ज़माने की सुंदरता के पैमानों पर खरी उतर पाए,
शायद कोई जिस्म ना देखकर रूह देख पाए,
औसत ही रह जाती है इनकी जिंदगी,
औसत ही होती है इनकी खूबसूरती,
खुद को शीशे में देख,
थोड़ा मुस्कुरा देती हैं,
शायद खुद से ही प्यार करना सीख पाए,
इनकी कहानी कोई नहीं पढ़ता,
यह फिल्म की नायिकाओं की छवि बन कर रह जाती हैं,
पर असल में ये खुद इक नायिका होती हैं,
जो अपना वजूद खो चुकी होती हैं,
जो खुद को पहचान नहीं पाती,
औरों की कही सुनी बातों को सच मान चुकी होती हैं,
इस तरह से कई नायिकाएं सहनायिका की ही जिंदगी जीती हैं,
औसत दिखने वालों से ही तो ये दुनिया है,
तो असल मायने में नायक और नायिका वहीं हैं,
जो खुद को नायक या नायिका कह रहे हैं,
वो तो क्षण भर का अपना रोल अदा कर रहे हैं।
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