ना समझता किसी को इंसान भी,
कितना गलत है इससे अंजान भी,
धन दौलत की दुनिया में सिमटकर,
फिर रहता है इससे परेशान भी,
खुद को समझता भगवान से ऊपर,
इज्जत भी चाहता उनके बराबर ही,
अपनो से डरकर करता विश्वास पड़ोसियों पर,
फिर चाहता बुरे वक़्त में सहायता अपनो से ही,
अपने अहम में चूर रहकर करता सबका अपमान है,
सब छोटे हैं और झुके मेरे सामने,
हर कोई इसी किस्म का इंसान है,
चाहता है सबसे जी हुज़ूरी और इसी बात का गुमान है,
बस इसीलिए अकेला कहीं ना कहीं हर इंसान है।।
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