तुम कुरेदोगे मुझे कितना भी,
मैं उसका नाम नहीं लूंगा,
ख़ुद अकेले में चीखता रहूंगा,
मगर सरेआम नहीं लूंगा,
ये तो है मुसाफ़िर की अपनी मर्ज़ी,
छांव में किस दरख़्त की, कब तक ठहरे,
अब तो ये हो कि जड़ से उखाड़ फेंक दिया जाऊं,
जब तलक जिंदा रहूंगा, सब्र से काम नहीं लूंगा।
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