तुम आँखें बंद कर लो अपनीज़्यादा ग़लत कुछ नहीं होगाजो होता आया है सदियों सेउससे अलग कुछ नहीं होगातुम पूजते ही तो हो हैवानों कोअब इसमें तुम्हारा क्या दोष हैसभ्य होने के सामाजिक नशे में होसही और ग़लत का तुम्हें क्या होश है -
तुम आँखें बंद कर लो अपनीज़्यादा ग़लत कुछ नहीं होगाजो होता आया है सदियों सेउससे अलग कुछ नहीं होगातुम पूजते ही तो हो हैवानों कोअब इसमें तुम्हारा क्या दोष हैसभ्य होने के सामाजिक नशे में होसही और ग़लत का तुम्हें क्या होश है
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दांव पर लगाया नहीं मैंने रिश्तों कोचीरहरण फ़िर क्यों मेरे हिस्से आयाविरासत में मिली मर्यादा सीता जैसीफिर कुरुक्षेत्र सा क्यों मैंने आंगन पाया प्रश्नचिन्ह जब लगा कुल की मर्यादा परधर्मराज ने भी अर्थ क्यों धर्म का भुलायाभरे हैं पन्ने अखबारों के मेरी चीत्कार सेरूप कालिका का जाने क्यों मैंने है बिसराया सुजाता शर्मा -
दांव पर लगाया नहीं मैंने रिश्तों कोचीरहरण फ़िर क्यों मेरे हिस्से आयाविरासत में मिली मर्यादा सीता जैसीफिर कुरुक्षेत्र सा क्यों मैंने आंगन पाया प्रश्नचिन्ह जब लगा कुल की मर्यादा परधर्मराज ने भी अर्थ क्यों धर्म का भुलायाभरे हैं पन्ने अखबारों के मेरी चीत्कार सेरूप कालिका का जाने क्यों मैंने है बिसराया सुजाता शर्मा
ज़िंदगी के हादसों नें जिन हाथों में थमाई हो कलमलाज़मी हो जाता है उन लेखकों का पढ़ा जाना,इसीलिए नहीं किउनके दामन में डाले जाएं फूल सहानुभूति के ,पर इसलिए किहादसों में पनपे हर्फ़ पिरोए जाते हैं हरदमउम्मीद कि स्याही से.... सुजाता शर्मा -
ज़िंदगी के हादसों नें जिन हाथों में थमाई हो कलमलाज़मी हो जाता है उन लेखकों का पढ़ा जाना,इसीलिए नहीं किउनके दामन में डाले जाएं फूल सहानुभूति के ,पर इसलिए किहादसों में पनपे हर्फ़ पिरोए जाते हैं हरदमउम्मीद कि स्याही से.... सुजाता शर्मा
दिल के दरिचे से दबे पांव आते हैं जब कुछ दर्द नये- सेतब कहीं जाकर कुछ पुराने जख़्मों को भुला पाते हैं हमहर शाम सूरज के साथ ढलती है उम्मीद रौशनी की तरहऔर फ़िर हर सहर आँखों में नया ख़्वाब सजा लेते हैं हम -
दिल के दरिचे से दबे पांव आते हैं जब कुछ दर्द नये- सेतब कहीं जाकर कुछ पुराने जख़्मों को भुला पाते हैं हमहर शाम सूरज के साथ ढलती है उम्मीद रौशनी की तरहऔर फ़िर हर सहर आँखों में नया ख़्वाब सजा लेते हैं हम
अभी तो ख़ामोश रातों क़ी अनसुलझी पहेली हूँकल पन्नों पर उतर जाऊँगी इक ज़बाब बनकरआज तरीक़े जितने भी आज़माने हैं आज़मा लेना कल मिलूँगी तुमसे हर जख़्म का हिसाब बनकरतुम काँटे चाहे जितने ही बिछा लेना राहों में मेरीमैं उन काँटों में भी ख़िल जाऊँगी ग़ुलाब बनकरसुकूँ की नींद सोया नहीं करते मुसाफ़िर अँधेरों केमेहनतकशों की नींद भी जगती है इक ख़्वाब बनकरसुजाता शर्मा -
अभी तो ख़ामोश रातों क़ी अनसुलझी पहेली हूँकल पन्नों पर उतर जाऊँगी इक ज़बाब बनकरआज तरीक़े जितने भी आज़माने हैं आज़मा लेना कल मिलूँगी तुमसे हर जख़्म का हिसाब बनकरतुम काँटे चाहे जितने ही बिछा लेना राहों में मेरीमैं उन काँटों में भी ख़िल जाऊँगी ग़ुलाब बनकरसुकूँ की नींद सोया नहीं करते मुसाफ़िर अँधेरों केमेहनतकशों की नींद भी जगती है इक ख़्वाब बनकरसुजाता शर्मा
बेहतर है कुछ अल्फाज़ों का दफ़्न हो जाना भी ज़हन में ये ज़रूरी तो नहीं की हर बात का ही तमाशा सरेआम हो ये लाज़मी है की कुछ जख़्म मिले फूलों के आग़ोश में भी कब तक हर चोट में आख़िर शीशे और काँटे ही बदनाम हो -
बेहतर है कुछ अल्फाज़ों का दफ़्न हो जाना भी ज़हन में ये ज़रूरी तो नहीं की हर बात का ही तमाशा सरेआम हो ये लाज़मी है की कुछ जख़्म मिले फूलों के आग़ोश में भी कब तक हर चोट में आख़िर शीशे और काँटे ही बदनाम हो
दिल को अब आदत हो चली हैटुक़डों में हर दफ़ा बिखरने कीरिवाज़ आईने ने भी बदल ली हैटूट के बेतहाशा पल में संवरने कीअब तो मेरे ज़ख़्मो की स्याही भी पन्नों पर अपनी दास्ताँ नहीं लिखतीज़मीं की ख्वाईश नें तोडा है इस क़दरअब ख़्वाबों में भी मैं आसमाँ नहीं लिखतीसुजाता शर्मा -
दिल को अब आदत हो चली हैटुक़डों में हर दफ़ा बिखरने कीरिवाज़ आईने ने भी बदल ली हैटूट के बेतहाशा पल में संवरने कीअब तो मेरे ज़ख़्मो की स्याही भी पन्नों पर अपनी दास्ताँ नहीं लिखतीज़मीं की ख्वाईश नें तोडा है इस क़दरअब ख़्वाबों में भी मैं आसमाँ नहीं लिखतीसुजाता शर्मा
पन्नों में ज़िंदगी के अश्क़ों की स्याही से कुछ दर्द बिखेरती हूँजाने क्यों ज़माना इन बेबस लफ़्जों को नज़्म कहा करता हैबड़े सलीके से रखने पड़ते हैं कदम शीशों के इन घरौंदों मेंजख़्मों का इलाज़ भी यहाँ इक नया जख़्म हुआ करता है।सुजाता शर्मा -
पन्नों में ज़िंदगी के अश्क़ों की स्याही से कुछ दर्द बिखेरती हूँजाने क्यों ज़माना इन बेबस लफ़्जों को नज़्म कहा करता हैबड़े सलीके से रखने पड़ते हैं कदम शीशों के इन घरौंदों मेंजख़्मों का इलाज़ भी यहाँ इक नया जख़्म हुआ करता है।सुजाता शर्मा
कुछ सितम अनकहे से कुछ जख़्म सहमे से दफ़्न हैं मुझमे अभीपिरोये जाएं अल्फ़ाज़ों में ग़र किस्से कितने ही फ़िर सरेआम होंगे कुछ लफ्ज़ों को सज़ा के लिख़ लेती मैं भी यूँ तो दास्तान अपनी इक दास्तां लिखने में मग़र जाने क़िरदार कितने ही बदनाम होंगें -
कुछ सितम अनकहे से कुछ जख़्म सहमे से दफ़्न हैं मुझमे अभीपिरोये जाएं अल्फ़ाज़ों में ग़र किस्से कितने ही फ़िर सरेआम होंगे कुछ लफ्ज़ों को सज़ा के लिख़ लेती मैं भी यूँ तो दास्तान अपनी इक दास्तां लिखने में मग़र जाने क़िरदार कितने ही बदनाम होंगें
उसे जलाने वाली हवाऐं भी वजूद उसका ख़ाक करती हैंहर शम्मा परवानों की महफ़िल में रौशन हुआ नहीं करतीबेरहम-सी इन रातों में जलती तो होगी वो कतरों में बेशक़ दो पल की लौ वरना पल भर में बुझने की दुआ नहीं करतीसुजाता -
उसे जलाने वाली हवाऐं भी वजूद उसका ख़ाक करती हैंहर शम्मा परवानों की महफ़िल में रौशन हुआ नहीं करतीबेरहम-सी इन रातों में जलती तो होगी वो कतरों में बेशक़ दो पल की लौ वरना पल भर में बुझने की दुआ नहीं करतीसुजाता