Sujata Sharma   (सुजाता शर्मा)
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Joined 25 April 2021


Joined 25 April 2021
25 FEB AT 13:39

तुम आँखें बंद कर लो अपनी
ज़्यादा ग़लत कुछ नहीं होगा

जो होता आया है सदियों से
उससे अलग कुछ नहीं होगा

तुम पूजते ही तो हो हैवानों को
अब इसमें तुम्हारा क्या दोष है

सभ्य होने के सामाजिक नशे में हो
सही और ग़लत का तुम्हें क्या होश है

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6 DEC 2023 AT 0:51

दांव पर लगाया नहीं मैंने रिश्तों को
चीरहरण फ़िर क्यों मेरे हिस्से आया

विरासत में मिली मर्यादा सीता जैसी
फिर कुरुक्षेत्र सा क्यों मैंने आंगन पाया

प्रश्नचिन्ह जब लगा कुल की मर्यादा पर
धर्मराज ने भी अर्थ क्यों धर्म का भुलाया

भरे हैं पन्ने अखबारों के मेरी चीत्कार से
रूप कालिका का जाने क्यों मैंने है बिसराया


सुजाता शर्मा





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13 SEP 2023 AT 3:23

ज़िंदगी के हादसों नें
जिन हाथों में थमाई हो कलम
लाज़मी हो जाता है
उन लेखकों का पढ़ा जाना,

इसीलिए नहीं कि
उनके दामन में डाले जाएं
फूल सहानुभूति के ,

पर इसलिए कि
हादसों में पनपे हर्फ़
पिरोए जाते हैं हरदम
उम्मीद कि स्याही से....



सुजाता शर्मा



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14 SEP 2022 AT 20:55

दिल के दरिचे से दबे पांव आते हैं जब कुछ दर्द नये- से
तब कहीं जाकर कुछ पुराने जख़्मों को भुला पाते हैं हम

हर शाम सूरज के साथ ढलती है उम्मीद रौशनी की तरह
और फ़िर हर सहर आँखों में नया ख़्वाब सजा लेते हैं हम

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13 SEP 2022 AT 1:30

अभी तो ख़ामोश रातों क़ी अनसुलझी पहेली हूँ
कल पन्नों पर उतर जाऊँगी इक ज़बाब बनकर

आज तरीक़े जितने भी आज़माने हैं आज़मा लेना
कल मिलूँगी तुमसे हर जख़्म का हिसाब बनकर

तुम काँटे चाहे जितने ही बिछा लेना राहों में मेरी
मैं उन काँटों में भी ख़िल जाऊँगी ग़ुलाब बनकर

सुकूँ की नींद सोया नहीं करते मुसाफ़िर अँधेरों के
मेहनतकशों की नींद भी जगती है इक ख़्वाब बनकर

सुजाता शर्मा




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14 AUG 2022 AT 17:59

बेहतर है कुछ अल्फाज़ों का दफ़्न हो जाना भी ज़हन में
ये ज़रूरी तो नहीं की हर बात का ही तमाशा सरेआम हो

ये लाज़मी है की कुछ जख़्म मिले फूलों के आग़ोश में भी
कब तक हर चोट में आख़िर शीशे और काँटे ही बदनाम हो


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2 AUG 2022 AT 21:56

दिल को अब आदत हो चली है
टुक़डों में हर दफ़ा बिखरने की

रिवाज़ आईने ने भी बदल ली है
टूट के बेतहाशा पल में संवरने की

अब तो मेरे ज़ख़्मो की स्याही भी
पन्नों पर अपनी दास्ताँ नहीं लिखती

ज़मीं की ख्वाईश नें तोडा है इस क़दर
अब ख़्वाबों में भी मैं आसमाँ नहीं लिखती

सुजाता शर्मा

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16 JUN 2022 AT 23:46

पन्नों में ज़िंदगी के अश्क़ों की स्याही से कुछ दर्द बिखेरती हूँ
जाने क्यों ज़माना इन बेबस लफ़्जों को नज़्म कहा करता है

बड़े सलीके से रखने पड़ते हैं कदम शीशों के इन घरौंदों में
जख़्मों का इलाज़ भी यहाँ इक नया जख़्म हुआ करता है।

सुजाता शर्मा



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6 JUN 2022 AT 7:41

कुछ सितम अनकहे से कुछ जख़्म सहमे से दफ़्न हैं मुझमे अभी
पिरोये जाएं अल्फ़ाज़ों में ग़र किस्से कितने ही फ़िर सरेआम होंगे

कुछ लफ्ज़ों को सज़ा के लिख़ लेती मैं भी यूँ तो दास्तान अपनी
इक दास्तां लिखने में मग़र जाने क़िरदार कितने ही बदनाम होंगें


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31 MAY 2022 AT 23:43

उसे जलाने वाली हवाऐं भी वजूद उसका ख़ाक करती हैं
हर शम्मा परवानों की महफ़िल में रौशन हुआ नहीं करती

बेरहम-सी इन रातों में जलती तो होगी वो कतरों में बेशक़
दो पल की लौ वरना पल भर में बुझने की दुआ नहीं करती


सुजाता

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