सुचि (सनाज़)   (Suchi)
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Joined 17 May 2021


Joined 17 May 2021

मांगती हूं मन्नतों में एक बार फिर से तुम्हें,,, मां!
आसान नहीं तुमसा बनना नींद से कोसों दूर रहकर।

तेरी रहमतों पर जिन्दा एक बार फिर से,,,, मां!
जाने कैसे हर लेती सब बलाएं अपने दर्द सहकर।।

नहीं भूलती तुम देना ममता और प्रेम फिर से,,,मां!
पर हम नादान भूल जाते हैं सारे कसमें वादे कहकर।

सभी मुश्किलों में याद आती बार-बार तुम फिर से,,मां!
पिघल जाते सारे गम मेरे अपनी आसुओं में बहकर।।

मिट जाते सारे दर्द और हंस देती हूं मैं फिर से,,,मां!
लगा लेती हो सीने से जब तुम "मैं हूं ना" ये कहकर।

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मजदूरों से कुछ हालात अब अपने भी हैं,, साहब!
लोग खामखां ताने देते हैं कि तुम सरकारी हो...✍️

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पूजा के फूल अब अपने लिए चुनती हूं और तुम्हारे लिए कुछ कांटे,,
वो क्या है ना,, बड़े जतन से अब पराई बनना चाहती हूं तुम्हें अपना कहकर..✍️

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अब भी हर सुबह मुस्कुरा देती हूं तुम्हें याद करके,,
जिन बातों से तेरे मेरे दिन की शुरुआत होती थी...✍️
"ॐ नमः शिवाय 🙏"

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हम दोनों के बीच,,
महज उतना ही फासला है,,,कि
मैं हमेशा"मैं"कहती हूं और,,तुम हमेशा"हम"..
तुम बातों की नजदीकियों में,,बड़ी बेसब्री से
मुझे ढूंढते हो और,,मैं तुम्हें,,अपनी खुद की सोच में..
तुम लगातार कोशिश करते हो,,दोनों को"हम"
बनाने में,, और मैं भागती हूं इस"हम"के बंधन से,,
क्योंकि मैं आजादी चाहती हूं,, मुझे लगता है कि
जैसे,,कोई कैद करना चाहता है फिर से,, मुझे
एक और बंधन में,, शायद संभव नहीं है मेरे लिए
फिर एक पिंजरे में कैद होना,,जो तुम समझ नहीं
पा रहे हो,, अब थक गई हूं,,नींद आ रही है,,,
सुकून चाहिए जिंदगी में,,,एक डर नहीं,,,
और यकीनन कभी कभी लगता है कि,,, तुम मुझे
डराते हो,,, मुझे कैद करके...✍️

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कभी हम मन्नत भी नहीं मांगते थे तुम्हें बिना सोचे,,,
जाने कैसे दहलीज पार कर दी थी तुमसे बिना पूछे।
तुम्हारी बाहों की गहराई जानते हुए भी,,,,साहब!
लड़खड़ाए थे मेरे कदम एक दफा तुम्हें बिना समझे।।

तुम मांगते थे दुआएं दर दर मेरी सलामती के लिए,,
फिर भी हफ्ते नहीं बीतते थे मेरा तुमसे बिना रूठे ।
मैंने ही भूल की हर बार तुम्हें समझने में,, साहब!
अब तक पूरे किए हैं सारे ख्वाब तुमने बिना सोचे समझे।।

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ये चांद बेदाग नहीं तुम्हारी जिंदगी की तरह,,
क्यूं बनाते हो मुझ सा धब्बा यूं हमें याद करके...
भूलते क्यूं नहीं हमारी सारी बातें तुम,,साहब!
क्या मिलेगा तुम्हें इस तरह खुद को बरबाद करके..!

चुभने लगी हूं जाने कब मैं अब अपनी ही नजरों में,,
क्यूं मर रहे हो तिल तिलकर मुझको आबाद करके...
क्यूं पालते हो इस तरह के अधूरे ख्वाब,, साहब!
जी लो अपनी जिंदगी मेरी याद को आजाद करके..!!

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मेरी उलझनों का दौर अब खत्म सा है,,साहब!
वो क्या है ना,,उलझनों ने ही अब तक उलझा रखा है।

जब से रूबरू हुई हूं खुद के सुकून से,,
ऐसा लगता है,,दिल का बोझ अब दिल ने सुलझा रखा है।।

खोने पाने से मन अब जैसे भर सा गया है,,साहब!
वो क्या है ना,,मेरे अपनो की खुशियों ने अब जगा रखा है।

टूटी नही रही अब जुड़ चुकी हूं इस कदर खुद से,,
तोड़ दो सारे ख्वाब अपने,,जो अब तक तुमने सजा रखा है।।

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अब भी हर रोज गुजरती हूं तुम्हारी खूबसूरत गलियों से,,
तुम्हारे आस पास लोगों की भीड़ देखकर ठहर जाती हूं।

आहिस्ता आहिस्ता ही सही अब तुम मशहूर हो गए हो,,
ये सोच मन ही मन तुम्हारी कामयाबी पर मुस्कुराती हूं ।।

हमारे बीच की बातें ना जब तुम औरों पर आजमाते हो,,
ये देखकर जाने क्यूं थोड़ी तुमसे खफा सी हो जाती हूं।

चाहूं तो समेट लूं अपने हिस्से की तमाम वो सारी यादें,,
पर मैं आदत से मजबूर खुद की मनमर्जियां चलाती हूं।।

पता है मुझे हर लम्हा गुजारते हो तुम इक इंतजार में,,
फिर भी मैं तुम पर बेपरवाह बन हसीन सितम ढाती हूं।

शायद जानती हूं कि नजदीकियां कितनी दरमियां हमारे,,
इसलिए पास होकर भी तुमसे ही अब बहुत दूर भागती हूं।।

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देर ही सही पर आखिर तुम्हें समझने वाले लोग मिल ही गए,,,
पता है खुश भी हूं और दुःखी भी अपनी जगह किसी और को देखकर...

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