बोहत सी बातें है तुमसे कहने को न जाने शुरुवात कहाँ से करू
बोहत सी बातें है तुमसे कहने को पर न जाने शुरुवात कहाँ से करू जो बातें खुद ही ने लिखवाई है तुम्हारे मन में उसे मिटाकर कुछ और कैसे लिखु उसी कहानी को दोबारा कैसे सुनाउ जिसका मुकाम ही मुकम्मल न कर सके
अधूरे लफ़्ज़ों को जोड़ना चाहू भी तो रूठे खयालात हंस देती है उन हज़ार नाकामियाब बहनो पर बड़ी मशक्कत से तुम्हे आंगन तक तो ले आये पर घर का दरवाजा न खोल पाए
आज दर्पण में खुद को ढूंढते ढूंढते तुम तक जा पोहोची देख कर अपनी वह मुस्कान उस बीतें काल पर ईर्ष्या सी हुई ऐसी बोहत सी बातें है बाकी बस न जाने शुरुवात कहाँ से करु