Sourabh Mishra   (Sourabh Sarvottam)
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Joined 1 September 2019


Joined 1 September 2019
1 AUG 2021 AT 2:01

मन है मुहब्बत में फिर से खो जाने का, 

मन है फिर से तेरी आगोश में आने का। 

कह दे जो तू हाँ ज़रा, 

मन है फिर से तेरी लिए फ़ना हो जाने का। 

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18 JUL 2021 AT 10:17

यहाँ हर साँस पर कर है, जीना तक यहाँ दूभर है।
मिडिल क्लास ये आदमी जाने देखो मरा किधर है?
कमाता कर्ज़ चुकाने को,कर्ज़ लेता घर चलाने को।
हर इक सांस की ख़ातिर, वो भटकता दर-बदर है।

देखो उम्र से पहले ही, वो तन बूढ़ा हो चला है।
चंद खुशियों की ख़ातिर, किस कदर वो जला है।
उसके उन ख्वाबों पर भी, सरकार की पैनी नज़र है।
जो बना सका आशियाना, सरकार लेती उसपे कर है।

पेट्रोल पर भी कर है, गाड़ी पर भी कर है,
कहती सरकार पैदल चलो, पदयात्री बेफ़िकर है।
कहें लकड़ियाँ मत जलाओ, गैस पर मगर कर है।
पसीने की पूंजी पे कर है, ठग घूमता बेफ़िकर है।

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10 JUL 2021 AT 11:38

'विवाह वर्षगांठ'

अगणित हर्षित पलों का,
मोल कैसे दे सकूंगा?
हूँ ऋणी मैं तुम्हारा,
और सदा ऋणी रहूँगा।

अप्रतिम विश्वास में बंध,
अनंत पथ पर मैं चलूँगा
ज्यों चली तुम संग मेरे,
मैं तुम्हारे संग चलूँगा।

हो निशा का तुम प्रभात
रिक्त ह्रदय का तुम्ही राग।
संगीतमय मधुर स्वप्नों का,
स्मृति राग बन रहूँगा।
हूँ ऋणी मैं तुम्हारा,
और सदा ऋणी रहूँगा।

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13 JUN 2021 AT 0:10

ऐ विरक्त मन, व्यर्थ नहीं तेरा चिंतन,
ये जग कोलाहल, ये सृष्टि अभिरंजन,
नहीं इच्छित तुझको भू -सुख-साधन
व्यर्थ समक्ष तेरे मर्त्य-लोक मनोरंजन। ऐ विरक्त मन---

नहीं कुपित तू किसी कथा पर,
न ही द्रवित तू निज व्यथा पर,
सदैव प्रदीप्त तू तिमिर पथ पर,
नव-पुष्पित कलियों-सा जीवन।  ऐ विरक्त मन ---

हो चिर निदाघ या पथ वर्षा कर्षित,
हो महाप्रलय या राह हिमाच्छादित,
जग के महा समर में प्रखर वेग से,
तूने सदा ही किया है लक्ष्य भेदन। ऐ विरक्त मन ---

ज्यों होता अस्त तारादल सूर्योदय पर,
होगा तेरा भी नील-नभ-गर्जित-स्वर,
रखना ही होगा सदा स्मरण तुझे
प्रतिपल परिवर्तित होता है जीवन।
ऐ विरक्त मन, व्यर्थ नहीं तेरा चिंतन। 

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5 MAY 2021 AT 14:55

'मौत का कहर'

है मौत का कहर,  
नहीं दिखती सहर,
बस चीख औ' दर्द,
हर कहीं, हर प्रहर।

गिद्ध की गिरफ्त में श्वांसें,
फिर क्यूँ न बिछें लाशें,
हर तरफ मौत का मंज़र,
रोती मानवता सिहर-सिहर।

भला बोझ कन्धों पे,
कैसे पिता बेटे का ले,
इसी की खुशियों में,
तो जला था उम्र भर।

देख शव अनगिनत ,
देखो रो रहा अम्बर,
भला अपनों के बिना,
कैसा ये अंतिम सफर?

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21 MAR 2021 AT 20:56

'स्वार्थ-सिद्धि'

छल-कपट छीन-झपट
तू चतुर चालाक चपट
जाल बिछाये डंक मारे,
स्वार्थ सिद्धि बेझिझक।

न कोई अपना पराया,
हर किसी को तू छलत
निज कार्य सिद्धि लक्ष्य
करत सबसे छीन झपट ।

काम क्रोध लोभ मोह,
अहंकार से तू लिपट,
कर कर दुष्कर्म सभी
बढ़त चलत बढ़त चलत।

दुखित द्रवित जन सब,
सुन पुकार धरा फटत,
पाप-पुण्य बोध नहीं
अंतर्मन माया लपट।।

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20 MAR 2021 AT 9:37

'यहाँ बसते बहरे गूँगे हैं'

मोल नहीं यहाँ भावों का, 
यहाँ पर बसते बहरे गूँगे हैं।
नहीं है यहाँ धार नदिया की, 
बिखरी चंद पानी की बूँदे हैं ।

कौन गाये गीत मल्हार के
सभी कंठ यहाँ पर रून्धे हैं
कैसे बहे बयार बदलाव की,
यहाँ मुर्दे लेटे आँखें मूंदे हैं।

शब्दों की प्रभुता खत्म हुई, 
सब हृदय विचार शून्य हुए, 
कौन किसी का दर्द सुने,
यहाँ पर बसते बहरे गूँगे हैं।

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12 MAR 2021 AT 18:28

अरे छोड़ो उसको जो है जाता,
व्यर्थ प्रलाप न मुझको भाता। 
आह हो न सका यह मेरा प्रिय, 
सारे जग की बस यही है गाथा ।
अरे छोड़ो उसको जो है जाता... 

कब रोक किसी को कोई पाता
विरह वेदना से सब हैं पीड़ित,
कौन भला यह दुख न उठाता। 
रेत मुट्ठी में बांध कौन पाता? अरे छोड़ो... 

यह मेरा, वह तेरा, जग उलझा
उलझन में जीवन व्यर्थ है जाता ।
हैं मात्र प्रलोभन ये सब बंधन, 
बंधन में बंध, मन पीड़ा पाता। अरे छोड़ो... 

आना-जाना दुनिया का सच, 
सच से मन हैं क्यूँ घबराता? 
जलता दीपक बुझ ही जाता, 
लिखा भाग्य न बदला जाता ।
अरे छोड़ो उसको जो है जाता... 

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21 JAN 2021 AT 15:02

'सभ्य समाज में बेटियां'

क्यों खौफ है दिशाओं में, क्यों आक्रांत हैं ये बेटियां;
सभ्य इस समाज में क्यों मिलती हैं लाशबंद पेटियां?
हो तर जब निज-रक्त से, स्व-जन्म को कोसती बेटियाँ,
चीख-पुकार उनकी भला, क्यूँ न तोड़ती बंधन-बेड़ियाँ?

हैं पिशाचों के ये झुंड जो, निडर नोचते इन्हे यहाँ- वहाँ,
क्यूँ नहीं हमारी ये सभ्यता, रोकती इन्हे, पूछती हैं बेटियां ।
तेजाब इनका, हवस इनकी, दुष्कृत्य भी हैवानों ने किया।
फिर क्यूँ दोषी बनकर भला, इंसाफ को भटकती बेटियां?

पंछियों-सी मासूम वो, नन्ही-सी थी वो परी,
गिद्ध ये आया कहाँ से, नोच प्राण जिसने लिया?
ये गिद्ध कोई परिचित ही था या जीव कोई अंजान था?
मूल प्रश्न तो बस इक यही, क्यूँ नहीं सुरक्षित हैं बेटियां?

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3 OCT 2020 AT 9:13

आओ सब शोक मनाएं
चलो मिल कर अश्रु बहायें, गाली दें, चीखे चिल्लाएं;
फिर लुटी है एक अस्मिता, आओ सब शोक मनाएं।
नहीं शेष राम-कृष्ण जो किसी सुता की लाज बचाएं,
चीरहरण का प्रतिशोध लें, नहीं शेष अब वो भुजाएँ।।

लज्जित भारतमाता अपनी, कैसे इन पर गर्व मनाए?
दुखित द्रवित बेटियां इसकी, कैसे मुख पर लाली छाए?
देखो बार-बार की ये बर्बरता, बार- बार मरती बेटियां;
मृत हुई अंतरात्मा अपनी, आओ सब शोक मनाएं।।

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