कभी कभी लगता है कि,
मेरी उम्र की महिलाओं में ,
शायद मैं ही हूं जिसमे,
इतना ज्यादा बचपना बाकी है अभी,
जबकि अब बढ़ती उम्र में ,
मुझे हो जाना चाहिए खुद से भी ज्यादा समझदार,
छोड़ देना चाहिए ये बचपने का दामन,
मुझे और ज्यादा सहज हो जाना चाहिए,
ये जो बात बात पर हंस देती हूं,
मां अक्सर कहती रहती है मुझसे कि ,
लड़कियों के यूं बात बात पर हंसने से,
लोग उन्हें गलत समझ लेते है,
मुझे लगता है मुझे अपनी इस बेबाक हंसी पर भी,
अब विराम लगा लेना चाहिए,
मुझे हर बात की गिरह बनाकर ,
रख लेना चाहिए मन के कोने में कहीं,
लोगों से इक दूरी और दायरा बनाकर रहना चाहिए,
मुझे ये बच्चो से मिलती जुलती,
हरकतें अब नही करनी चाहिए,
मुझे संभलना चाहिए किसी के कहने से पहले,
मुझे बड़ों जैसी अब समझ रखनी चाहिए,
ये बच्चों के संग कभी कभार खेलना,
उनकी हंसी ठिठोली में भागीदार बनना,
ये सब शायद अब नही है मेरे लिए,
मुझे बच्चो के बीच,
बड़ों जैसा गंभीर अब रहना चाहिए ,
ख़ैर....
मुझे बदलना नहीं आता ,
हां वक्त सब कुछ सिखा देगा धीरे धीरे ,
वो बात अलग है....
Smita
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