तूं सच में क्या है "सादिक," खुद को क्या दिखाता है,
जरा तन्हाई में खुद को देख,सब पता चल जाता है,
मेंरी हसरतें कुछ और,मेंरे कारनामे और हैं,
जो एक पग भी ना चला, कहां मंजिल पाता है,
मैं रुका हुआ पोखर का पानी, मुझ में बस है गंदगी,
बिना रवानगी,दरिया भी,ना सागर पाता है
मैं अंधेरे में गुनहगार,दिन में नमाजी बना तो क्या,
दोहरी फितरत का आदमी, कहां खुदा को भाता है,
देख कमाल-ए-अक्ल अपनी,जो अमल से कोसों दूर है,
गुनाह लफ्जों में पिरो,दुनिया को शायरी सुनाता है,
या मुर्शिद,अब इश्क नही, सिखा तौबा करना,
दिल दावा-ए-इश्क कर,गुनाह में डूब जाता है,
सुना "सादिक" ने है,मेरे "मुर्शिद"तेरी रहमत अजीम है,
जो गुनाह से तौबा करता है,तेरी रहमत को पाता है,
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