ग़ज़ल
इन बहारों का कहो जश्न मनाऊँ कैसे
जा चुका है तू मगर मैं ये भुलाऊँ कैसे
तू है वो फूल जो कांँटों से घिरा रहता है
तुझको सीने से लगाऊँ तो लगाऊँ कैसे
अब कोई आग दहकती ही नहीं सीने में
उसकी यादें हैं जो दिल में वो जलाऊंँ कैसे
शोरगुल में कहीं खो जाएगी ये दुनिया के
तुझको आवाज़ लगाऊंँ तो लगाऊंँ कैसे
रोक रक्खा है सनम फ़र्ज़ की बेड़ी ने मुझे
मैं तुझे मिलने बता आऊँ तो आऊँ कैसे
कुछ नहीं मिलता मुझे तुझसे अज़िय्यत के सिवा
मैं तेरे साथ त'अल्लुक़ ये निभाऊंँ कैसे
रूठ जाएँ न कहीं मुझसे ये डर लगता है
हाल ए दिल उनको सुनाऊँ तो सुनाऊँ कैसे
'साद' उस के बिना घर, घर नहीं लगता मुझको
इस मकाँ को कहो बिन उसके सजाऊँ कैसे
सिद्धार्थ सैनी ’ साद ’
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