Siddhartha Saini   (सिद्धार्थ साद)
824 Followers · 53 Following

मेरी यूट्यूब लिंक
👇👇👇👇👇👇
Instagram ID :- Sidd_Shayr16
Joined 27 April 2020


मेरी यूट्यूब लिंक
👇👇👇👇👇👇
Instagram ID :- Sidd_Shayr16
Joined 27 April 2020
23 APR AT 5:49

ग़ज़ल

मंज़िल बदल गई कभी रस्ता बदल गया
तुझको नहीं ख़बर कोई क्या क्या बदल गया

इस बार भी न आया मुलाक़ात के लिए
बस ये हुआ कि उसका बहाना बदल गया

दावा था हुक्मरान का आएंँगे अच्छे दिन
फिर ये हुआ फ़क़ीर का कासा बदल गया

लगता नहीं मुझे कोई क़ाबिल भरोसे के
इक यार जब से मेरा पुराना बदल गया

अब तो यहांँ सनम की फ़क़त याद रह गई
अफ़सोस है की उसका ठिकाना बदल गया

जो एक शख़्स मेरे लिए काइनात था
वो बदला तो लगा कि ज़माना बदल गया

जब से रखे हैं 'साद' ने अपने यहाँ क़दम
इस शह्र-ए-ना-मुराद का नक्शा बदल गया

सिद्धार्थ सैनी ’साद’

-


18 APR AT 10:39

ग़ज़ल

आ के देखो कभी तुम यार सहारनपुर में
लोग सब होते हैं दिलदार सहारनपुर में

शह्र ख़ुशियों का है ये ग़म का नहीं है यारो
इस तरह मत रहो बेज़ार सहारनपुर में

पूरी करती है मुरादें सभी मेरे मन की
माता रानी का है दरबार सहारनपुर में

चाहिए क्या तुझे तुहफ़ा बता दे जान–ए–जाँ
शाम को लगता है बाजार सहारनपुर में

झूठ की दाल तो बिल्कुल न गलेगी तेरी
सच के हैं लोग तरफ़दार सहारनपुर में

इतनी ताज़ा है यहांँ आब–ओ–हवा क्या कहने
ठीक हो जाते हैं बीमार सहारनपुर में

ज़लज़ले कितने भी आ जाए यहांँ मुश्किल के
हौसले होंगे न मिस्मार सहारनपुर में

फ़र्क़ कुछ भी नहीं ईद और दिवाली में यहांँ
प्यार के होते हैं त्यौहार सहारनपुर में

लोग कहते हैं सुख़नवर है बहुत उम्द: 'साद'
मेरे पढ़ते हैं जो अश'आर सहारनपुर में

सिद्धार्थ सैनी ’ साद ’

-


13 APR AT 10:06

ग़ज़ल

रोज़ाना ज़ुल्म इक नया ढाने का शुक्रिया
मेरे क़लम को दर्द पिलाने का शुक्रिया

होता नहीं किसी पे मुझे ए'तिबार अब
ऐ ज़ीस्त ऐसे मोड़ पे लाने का शुक्रिया

कब से थी आरज़ू हमें दीदार की तिरे
चहरे से अपने ज़ुल्फ़ हटाने का शुक्रिया

इसने हमें भुला दिए हैं दर्द ओ ग़म सभी
आँखों से अपनी मय ये पिलाने का शुक्रिया

तेरे ख़्याल में ही कहीं खो गया था मैं
मुझसे मुझी को यार मिलाने का शुक्रिया

दो पल सही सुकून सनम दिल को मिल गया
कुछ वक्त मेरे साथ बिताने का शुक्रिया

ये दर्द वज्ह जीने की देता है अब मुझे
इस तरह मेरे दिल को दुखाने का शुक्रिया

तकलीफ़ और बढ़ती इन्हें देख कर तेरी
मेरे ख़तो को 'साद' जलाने का शुक्रिया

सिद्धार्थ सैनी ’साद’

-


7 APR AT 8:13

ग़ज़ल

इक-दूजे से ख़फ़ा-ख़फ़ा से हैं अभी से हम
बेहतर ये है कि दूर हो जाएँ ख़ुशी से हम

ख़ुद में तलाश करते हैं कोई नया हुनर
ख़र्चा निकाल पाते नहीं शा'इरी से हम

नफ़रत सी हो गई है महब्बत के नाम से
फ़ोटो हटा चुके हैं तिरा डाइरी से हम

ठुकरा दिया हमारी मोहब्बत को उस ने यार
हाँ करती गर वो मर गए होते ख़ुशी से हम

तुझ को भी काम आना नहीं वक़्त पर कभी
उम्मीद क्या लगाएंँ तिरी दोस्ती से हम

मा'लूम ‌ था हमें कि सितमगर है तू मगर
उलझन में पड़ गए हैं तिरी सादगी से हम

दुश्वार‌ लगता है हमें साँसें भी लेना अब
कुछ ऐसे तंग आ चुके हैं ज़िंदगी से हम

हर बार तेरा चेहरा हमें याद आता है
जब जब सनम गुज़रते हैं तेरी गली से हम

घर में परिंदे पाल लिए हम ने 'साद' अब
उम्मीद क्या रखें वफ़ा की आदमी से हम

सिद्धार्थ सैनी ’ साद ’

-


28 MAR AT 20:04

ग़ज़ल

हम जिस जहांँ में नेक सजन ढूंँढ़ रहे हैं
लोग उसमे फ़कत अच्छा बदन ढूंँढ़ रहे हैं

इस तर्क–ए–त'अल्लुक़ पे हमें रोना था लेकिन
हम डायरी में शेर-ओ-सुख़न ढूंँढ़ रहे हैं

फूलों की हिफ़ाज़त में लगे हैं सभी काँटे
और फूल हैं जो उनमें चुभन ढूंँढ रहे हैं

दौलत तो कमाई है मगर खो चुके हैं चैन
परदेस में जो अपना वतन ढूंँढ़ रहे हैं

मायूसी के अंधेरे यहांँ हैं घने लेकिन
उम्मीद की हम फिर भी किरन ढूंँढ़ रहे हैं

बर्बाद ख़िज़ाओं के जो मौसम में न हो यार
ऐसा यहांँ हम कोई चमन ढूंँढ़ रहे हैं

नाचीज़ का है ’साद’ तख़ल्लुस कहो उनको
जो लोग यहांँ अहल-ए-सुख़न ढूंँढ़ रहे हैं

सिद्धार्थ सैनी ’ साद ’

-


26 MAR AT 22:01

ग़ज़ल

ऐसे हालात थे ग़म-ख़्वार के आंँसू छलके
देखकर मुझको मिरे यार के आंँसू छलके

ये ख़िज़ाँ बाग से सब कुछ चुरा के ले गई है
फूल मुरझाए सभी ख़ार के आंँसू छलके

एक दिन मंँझले ने जब बाप से हिस्सा मांँगा
बँट गया घर दर–ओ–दीवार के आंँसू छलके

पढ़ता रहता है शब–ओ–रोज़ ये ख़ूनी ख़बरें
आज फिर यूँ हुआ अख़बार के आँसू छलके

दर्द इतना ये क़लम मेरा बयाँ कर चुका है
अब तो काग़ज़ पे भी अशआर के आंँसू छलके

सैकड़ों लोग जनाज़े में मेरे शामिल थे
और दुख ये है की दो चार के आंँसू छलके

क़त्ल करते हुए माथे पे शिकन थी न मगर
मौत के डर से गुनहगार के आंँसू छलके

इस तरह उससे महब्बत हुई है मुझको ’साद’
मैं भी रोता हूंँ अगर यार के आंँसू छलके

सिद्धार्थ सैनी ’ साद ’

-


12 MAR AT 11:32

ग़ज़ल

शिद्दत ही मेरे ग़म की बढ़ाने के लिए आ
तू शौक़ से इस दिल को दुखाने के लिए आ

दीवार ये नफ़रत की गिराने के लिए आ
नग़मात महब्बत के सुनाने के लिए आ

हमको नहीं दरकार तेरे रहम की जानाँ
तू रोज़ सितम इक नया ढाने के लिए आ

मझधार में डूबे न महब्बत का सफ़ीना
कश्ती ये किनारे से मिलाने के लिए आ

मैं तुझको ये कब कहता हूंँ रक्खे तू मुझे ख़ुश
सौ बार मेरे दिल को दुखाने के लिए आ

ता उम्र न भर पाए किसी भी दवा से जो
ऐसा कोई तू ज़ख़्म लगाने के लिए आ

इन्कार इनायत से तेरी हमको नहीं है
एहसान सनम फिर भी गिनाने के लिए आ

तू ख़ुश है बहुत मेरे बिना कैसे ये मानूँ
इक बार यकीं इसका दिलाने के लिए आ

ये लोग गुनहगार बताते हैं मुझे ’साद’
इल्ज़ाम मेरे सर से हटाने के लिए आ

सिद्धार्थ सैनी ’ साद ’

-


8 MAR AT 17:10

ग़ज़ल

टल जाए मेरे सर से बला मैं उदास हूंँ
दे दे कोई ख़ुशी की दुआ मैं उदास हूंँ

मत गुनगुना ग़ज़ल तू मेरी दर्द से भरी
कोई ख़ुशी का गीत सुना मैं उदास हूँ

थोड़ा सुकून दर्द में मिल जाएगा सनम
सीने से अपने मुझको लगा मैं उदास हूंँ

समझाने के हज़ार जतन कर लिए मगर
दिल मानता नहीं ये मिरा मैं उदास हूंँ

कहना था उसको ख़ुश हूँ मैं तेरे बिना मगर
जब आई सामने वो कहा मैं उदास हूँ

मैं खुश नहीं हूंँ जीत के अपने रक़ीब से
लगता है ‌ जैसे हार गया मैं उदास हूंँ

ये जिस्म बोझ लगने लगा कच्ची उम्र में
ए ज़िंदगी मुझे न सता मैं उदास हूंँ

तूने निगाहें फेर ली क्यों मुझको देखकर
क्या है मेरी ख़ता ये बता मैं उदास हूंँ

काफ़ी नहीं है जिसके लिए कोई भी सज़ा
ऐसा गुनाह 'साद' किया मैं उदास हूँ

सिद्धार्थ सैनी 'साद'

-


16 FEB AT 20:35

ग़ज़ल

इन बहारों का कहो जश्न मनाऊँ कैसे
जा चुका है तू मगर मैं ये भुलाऊँ कैसे

तू है वो फूल जो कांँटों से घिरा रहता है
तुझको सीने से लगाऊँ तो लगाऊँ कैसे

अब कोई आग दहकती ही नहीं सीने में
उसकी यादें हैं जो दिल में वो जलाऊंँ कैसे

शोरगुल में कहीं खो जाएगी ये दुनिया के
तुझको आवाज़ लगाऊंँ तो लगाऊंँ कैसे

रोक रक्खा है सनम फ़र्ज़ की बेड़ी ने मुझे
मैं तुझे मिलने बता आऊँ तो आऊँ कैसे

कुछ नहीं मिलता मुझे तुझसे अज़िय्यत के सिवा
मैं तेरे साथ त'अल्लुक़ ये निभाऊंँ कैसे

रूठ जाएँ न कहीं मुझसे ये डर लगता है
हाल ए दिल उनको सुनाऊँ तो सुनाऊँ कैसे

'साद' उस के बिना घर, घर नहीं लगता मुझको
इस मकाँ को कहो बिन उसके सजाऊँ कैसे

सिद्धार्थ सैनी ’ साद ’

-


24 JAN AT 15:29

ग़ज़ल

याद आती है बहुत यार तिरी शाम के बा'द
इसलिए आँख में रहती है नमी शाम के बा'द

मैं तो इस पौधे को पानी भी नहीं देता कभी
कैसे खिल जाती है ये ग़म की कली शाम के बा'द

मेरे सीने से लिपट कर मेरे ग़म रोते हैं
दोस्त बन जाती है तन्हाई मिरी शाम के बा'द

चांँद बन के तू किसी रोज़ मेरे घर में आ
घर में होती हैं कमी रौशनी की शाम के बा'द

ज़ख़्म जो भरने लगे थे हुए ताज़ा फिर से
जब सुनी एक ग़ज़ल दर्द भरी शाम के बा'द

वस्ल-ए-महबूब की उम्मीद में तेज़ी से चलीं
घड़कनें और ये दीवार घड़ी शाम के बा'द

चांँद भी आसमांँ से उसको उतर कर देखे
घर से बाहर वो अगर निकले कभी शाम के बा'द

डूबने वाले को जैसे हवा की होती है
ऐसी महसूस हुई तेरी कमी शाम के बा’द

' साद ' कुछ भी तो नहीं बदला तिरी ज़िन्दग़ी में
सुब्ह होता है जो होता है वही शाम के बा'द

सिद्धार्थ सैनी ' साद '

-


Fetching Siddhartha Saini Quotes