ए ज़िंदगी मैं सोना चाहता हूं,
अंधेरे के आगोश में खोना चाहता हूं,
ये सुबह की रोशनी मुझे अब पसंद नहीं,
खोलना इन आंखो अब लगता नहींं है सही,
थक गया हूं दोगले लोगो से मिलते,
जो लोग बस ज़ुबानी बाते ही है सिलते,
न कोई है सच्चा यहां, ये झूठों का मेला है,
अजब सी जिंदगी का ये गज़ब स खेला है,
कहूं किससे, न कोई यहां है पास,
अकेलेपन से जूझता हो रहा मैं उदास,
सुबह दोपहर तो नई कयामत लाती है,
न जाने कितने धोखे, कितने फरेब सिखाती है,
सांझ का सुकून हि है, जो जीने के चाह देता है,
दिल को तसल्ली की नई राह देता है,
यह रात ही दोस्त है जो हमदर्द बन जाती है,
हर दर्द पर खामोशी का मरहम लगती है,
न कहती है मुझसे कुछ, बस मेरी सुनती जाती है,
भीगे तकिया से पूछो, ये रात हर रोज कहानी दोहराती है,
सूरज की गर्मी से भी, अब मैं परेशान हो जाता हूं,
चांद की ठंडक में ही अब मैं आराम पाता हुं,
शायद इसीलिए मैं अंधेरे में होना चाहता हुं,
अपने उन हसीन ख्वाबों में खोना चाहता हुं,
अपनी अश्कों को बहाए बिन रोना चाहता हूं,
सुन ए ज़िंदगी मैं सोना चाहता हूं।
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