आज दिन में किसी ने एक न्यूज आर्टिकल शेयर किया- NTPC के एक इंजीनियर मृत पाए गए। पुलिस को प्रथमदृष्टया आत्महत्या का केस लग रहा है। फिर व्हाट्सएप ग्रुप्स पर चर्चा हुई। ऑफिस के क्यूबिकल्स में चर्चा हुई.. क्यों, कहाँ, कैसे वगैरह.. कुछ हमारी जैसी परिस्थितियों वाले की मौत की खबर थी ना.. कौतूहल वाजिब था.. बाद में पता चला कि हमारे कॉलेज के ही पढ़े हुए थे (हम लोगों से सालों पहले)... NTPC वाले कॉलेज के दोस्त जानते थे उन्हें। जैसा जानते थे, उस तस्वीर और व्यक्तित्व में हँसमुख जीव थे वे.. फिर तस्वीर बदलती जाती है धीरे-धीरे या अचानक बदल जाती है?
(अगर आत्महत्या ही मान कर चलें तो).. काम के बोझ और उसके तनाव से खुदकुशी जैसा कदम कतई तार्किक नहीं लगता। छोटा सा, खुशहाल परिवार यूं बिलखता छोड़ जाना, जब पैसा और स्वास्थ्य वगैरह कोई चुनौती ना हो.. तार्किक तो नहीं है। लेकिन फिर ज़िंदगी तर्क-वितर्क में उलझी भले रहे, तार्किक तौर पर बढ़ती तो नहीं है.. वो "आसान रास्ता" चुनने का साहस या दुस्साहस इतनी आसानी से तो नहीं आता होगा।
चाहे आवेग में लिया गया निर्णय हो या बस बोझिल या कठिन हो चुकी ज़िंदगी से भागने को "अंतिम विकल्प" मान कर उठा कदम.. जो चला जाता है, उसका तो कुछ नहीं; जिनके बीच से वो जाता है, उन्हें ये खयाल कब तक कचोटता होगा.. कि मैंने नहीं देखा उसे उस गर्त में गिरते.. या देखा तो था, पर मैं व्यस्त था, औरों की तरह
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