"स्वर्ग सी रात : चकोर, चाँद और मैं"
वो रोशनी कैसी, जो पलकों से छनकर आ रही।
खिड़की से झांकती हुई, शायद मुझे बाहर बुला रही।।
सर्द रातों की बर्फिली हवा, बदन कंपा रही।
वो चमक कैसी, जो अपनी ओर खींचे जा रही।।
बाहर कदम रखते ही, शरीर सिमट रहा।
नजरे उठा के देखा, क्या नजारा छा रहा।।
आज अकेली नहीं रात, चाँद भी है साथ।
आज चाँद संग मिलकर, खुशमाहौल हो रहा।।
चांदी सा कर जमीं, आसमा में चाँद खिल रहा।
साथ लिए चादर सितारों की, कितना हसीन लग रहा।।
चकोर के भी नैन से, आज नींद है ओझल।
एकटक निहारे चाँद को, बावला सा हो रहा।।
सोच, ले बाहों में अपनी, उसे अपना बना रहा।
सारी की सारी रोशनी, कहीं खुद में समा रहा।।
कबसे बैठा था ताक में, वो बैचेन सा होकर।
चमकेगा फिर से चाँद, कहीं अंधेर को खोकर।।
बिखरी है चांदनी, आज आसमा में यूं।
कण कण को कर रजत, रूह पाक कर रहा।।
हो रहा समा हसीन, स्वर्ग सी ये रात है।
चकोर, चाँद और मैं, ये जुड़ाव खास है।।
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