अकेली पड़ गयी,जैसे बचपन का कोई बुना स्वेटर, जो जाने कितनी सर्दियों से नहीं निकला,मगर रखा हुआ है। जैसे सर्दी ख़त्म होते ही रजाई को गोली डालकर दीवान में रख दिया हो। और अगली सर्दी मानो दशकों बाद भी ना आए। पर सुनो, धूप नहीं नज़र आती। ठण्ड गयी ,पर सब कुछ सीला सीला है। बिस्तर की सिलवट पर एक मायूस सी नमी , हर वक्त। कड़क ,खनखनाती धूप की तलब है , क़ि सुखा सकूं बिस्तर की हर सिलवट ,तकिये का हर आंसू , बक्से में रखी शॉल , सीली सी हर याद। सब कुछ ठहर गया है सदियों से ,सदियों के लिए । लगता है जैसे वक्त की किसी एक टिक टिक में हमेशा के लिए कैद हो गयी । बाहर निकालो , क़ि यहाँ दीवारें रिस रही हैं , कोई मेहमां नहीं आता , रौशनदान पर कोई घरोंदा नहीं बना सालों से । सामने जो एक कदंब का पेड़ है,हर पत्ता जस का तस, कोई बसंत नहीं ,कोई पतझड़ नहीं! धूप आए तो चैन मिले , सुखाऊं सदियों को , नाज़ुक सी डोर पर लटकाकर , क़ि भाप बन जाए हर नमी,हमेशा के लिए ! :')
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