शब्दों का रंगरेज़   (©शब्दों का रंगरेज़)
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Joined 26 April 2018


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प्रेम की ना "परतें होती हैं...

हर उम्र के हिसाब से प्रेम अपने रंग को, अपने आकार को,अपने हिस्सों को, कभी कभी खुद को भी बदल लेता है...

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दीवार पर लगी घड़ी ने जब काँटो को रोक कर रखा था..
उस रोज...

तब ये एहसास हुआ...
साँसों की ज़रूरत उस वक़्त को भी पड़ी होगी।।।

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बस राम ही समय हैं और समय ही राम...।।।

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फिर मुझे वो चाँद नही दिखा कभी...
जो उस रोज़ ईद पर निकला था।।।

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कितना कठिन है...

"सरल" होकर जीना।।।

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इश्क समझदारों के लिए बिल्कुल किसी विषय की तरह होता है...

इसका सृजन "क ख ग" से शुरू होना होता है...

और समझदार व्यक्ति "क ख ग" से ऊपर की बातों में यक़ीन रखने में प्रयासरत रहता है...

जबकि इश्क़ को किसी बच्चे की तरह "मासूमियत और प्यार से" समझाया जाना चाहिए।।।

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हम सफर दूसरा खोज लेंगे...

सफ़र पर निकलते वक्त एक दुआ की थी उसने...
बेज़ा वक़्त ज़ाया करते हो तुम इस शहर में...

जाओ तुम आज़ाद हो अब...

अच्छा सुनो...

"महफूज़ रखना खुद को,और महसूस करना मुझे...

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मैंने कब माँगा कि मेरे हिस्से में "इश्क" लिखा जाए...
"मैंने"
तो बस
"तुम्हे"
माँगा है।।।

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मैंने कब माँगा कि मेरे हिस्से में "इश्क" लिखा जाए...
"मैंने"
तो बस
"तुम्हे"
माँगा है।।।

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कुछ यूँ छज्जे पर ठहर गया इश्क़...
दीवार के उस पार झाँकने की ख्वाइश में ये दिल तुम्हारी ओर गिरा बैठा।।।

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