ये तारों से टिमटिमाता शहर, अपने अंदर अंधेरा रखता है,
जब सूरज छुप जाए और चांद निकल आए, तो इस शहर में डर लगता है।
कहने को तो पढ़ा-लिखा है, पर अनगिनत सवालों से घिरा है,
कभी उठ जाती है इसकी लापरवाही पर सवाल, तो कभी खुद बेपरवाह सा लगता है।
तमाम खूबियां हैं इसमें, फिर भी कमियों का पिटारा लगता है,
इस शहर में डर सा लगता है।
बड़ी-बड़ी इमारतें हैं, बड़ी-बड़ी कारें हैं,
पर इंसानों का नजरिया बड़ा छोटा सा लगता है।
एसी है, कूलर है,
और सुविधाओं से भरा लगता है।
पर घर से बाहर निकलो तो हर तरफ़ धुआं-धुआं सा लगता है।
हर कोई पैसे के लिए पागल है, जैसा एक दौड़ सा लगा रहता है।
बीमारियों से घिरे हैं, चिंताओं से लिपटे हैं,
खुद की सुध नहीं, दूसरों में उलझा रहता है।
इस शहर में डर लगता है।
एक आशियाने के लिए, बीस साल की कर्ज में बंधने को तैयार रहता है,
नौकरी जिसका भरोसा एक पल का नहीं, उस पर उम्मीद बंद कर सालों का सपना बुनता है।
इस शहर में डर लगता है।
ईएमआई पर घर का सामान आता है, और उसी पर घर चलता है,
ठिकाना एक पल का नहीं, पर सालों का इसपे सौदा चलता है।
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