कुछ यूं इश्क़ था मुझे उससे,
के हर पल उसे पढ़ने की कोशिश में लगा रहता,
पन्ने पलट - पलट उसे निहारता कुछ यूं,
के वक्त भी अचंभित सा लगता के मानो जैसे ठहरा रहता,
फिर इक दिन पड़ी नज़र फटे हुए पन्ने के उस अंश पर,
के जैसे किसी ने उसे हो अभी ही फेंका,
आज भी है तलाश उस फटे हुए इक पन्ने की,
के जैसे मानो सारा सार उसी में ही हो छिपा बैठा...।।
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