मौसम की वो आखिरी बारिश,
जिसने बेवजह ही भींगा दिया मुझे,
उस ठहरी हुई जमीं पे,
जहाँ से उस खुले आसमां में बहते बादल
मुझ पर बूँदों के साथ व्यंग भी बरसा रहे थे।
उन व्यंगो की चोट ने तो मुझे,
पहली बार बारिश में भींगने की खुशी का
एहसास भी नहीं होने दिया ।
खामखां ही उन फिसलती बूँदों को
अपनी यादों के बस्ते में समेट रही थी मैं।
अनभिज्ञ थी शायद इस सच से,
कि महज बारिश की कुछ बूँदें ही तो थी वो,
जिन्होंने सूरज निकलते ही सूख जाना सीखा था।
बेवजह ही उन तेज हवाओं की सनसनाहट को
अपने आधे अधूरे सवालों का जवाब समझ रही थी मैं।
अंजान थी शायद इस बात से,
कि महज छाँव की ठंडी हवाएँ ही तो थी वो,
जिन्होंने धूप में रूप बदलना सीखा था।
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