अपनी ही रौ में बह रही थी पुरसुकून जिंदगी,
कैसे करूँ यकीं कि यूँ हालात बदल गये,
ये वक़्त का असर है या बदलाव की बयार,
सिक्के पुराने दौर के नये साँचे में ढल गये।
कल तक जो हमख्याल थे, हमराज़, हमज़ुबां,
बेमेल है अब सोच और झूठी है दास्ताँ,
साथी को दोष दे या अपनी बेवकूफियों को हम,
हम ही नहीं सीखे सबक, बाकी संभल गये।
मैं क्या करूँ कि मिन्नतों पर ऊँगली नहीं उठे,
जज़्बात को मिले जगह और शिकवे सभी मिटे,
उत्तरों को रौंद दूँ या कि प्रश्न संवार दूँ?
ऐसे ही कई सवाल फिर मन में पल गए।
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