एक लेखक के मन की कशमकश
लिखना और मिटाना...
ये लिख दूं की मोहब्बत है...
या ये लिख दूं की जरूरत है...
ये लिख दूं कि तन्हा है दिल...
या ये लिख दूं की साथ ढूंढता है दिल...
लिख दूं सब कुछ की सुबह की चाय,
दिन की चहल पहल, शाम का इंतजार, रात और खामोशी...
या फिर मिटा दूं लिख के सब...
मेरा इंतजार, मेरी बेकरारी, मेरी खामोशी, मेरा दर्द, क्यों बताऊं दुनिया को...कश्मकश लेखक का मन...
पर लिखना और मिटाना भले कितनी दफा भी हो...
अंत में स्याही लिखेगी जरूर...
वही सब इंतजार, प्यार, बेकरारी, दर्द... खामोशी... दस्तक... धोखा... वफा...
क्यों की मिटा तो हर कोई रहा ही है...
किसी को तो लिखना पड़ेगा ना...
वरना यादें कैसे बन पाएंगी...बुरी या अच्छी...
जीवन में आगे बढ़ना...चलते चलना...
सहना भी और कहना भी...
वक्त निकालना भी और वक्त देना भी...
और किसी का वक्त बनना भी...लिखना तो पड़ेगा ना...
लेखक की कश्मकश में...लेखक को...
लिखने और मिटाने में...लिखना ही चुनना पड़ेगा ना... हमेशा नही...
कुछ कहानियां मन ही जान पाता है कहा नही जा पाता है...
पर हमेशा चुप भी नही...
क्यों की स्याही से नही कहेगा तो ऐसे तो कोई लेखक ज्यादा कहता भी नही...
है ना...
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