अमावस में भी ये कैसा नूर बिखरा है,
जरूर वो संवरकर अपने छत पर आई है।
जो उसको ना देखें तो जान जाती है,
जो देख लें तो समझो कयामत आई है।
उनसे कोई कहो कि पर्दा करके आया करें
वो मुस्कुरा रहे हैं इधर जान पर बन आई है।
एक हम हैं जो उनके ही हुए जा रहे हैं,
एक वो हैं जिनकी आदत ही रुसवाई है।
इतना देखा है उन्हें फिर भी जी नही भरा है,
बस उन्हें देखने के लिए नींद अपनी गंवाई है।
ये नदी सिर्फ उनकी प्यास बुझाने को रुकी है,
वरना कब शज़र ने जड़ आसमां में उगाई है।
उनसे दिल सोच समझकर लगाना तुम सौरभ
मोहब्बत में दर्द है, सितम है तन्हाई है।
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