अब ये शहर, शहर नहीं लगता,
ये ज़मीन, ये आसमाँ, अब अपना नहीं लगता ।
ना ही अच्छी लगती है, ये भीगी भीगी सड़के,
और ना ही वो पेड़ की छाँव,
जहाँ से मैं तुम्हें देखती थी ।
तब वो हवा भी कितनी अपनी सी थी ,
जो उड़ाती थी, मेरी जुल्फें,
और मैं तुम्हें देखकर उसे सँवारती थी ।
तब वो पायल भी मन भाती थी ,
जो मैं,तुम्हारे लिये पहनती थी ।
वो काज़ल, जो तुम्हे अच्छा लगने पर लगाती थी,
वो बिंदिया जो, तुम्हारे लिये अपने माथे पर सजाती थी ।
कितनी वीरान हो गयी है, अब ये जगह,
पर कैसे कहूँ तुमसे! कि
अब मन नहीं लगता,
तुम्हारा होना, मेरे लिये कितना मायने रखता ।
काश आ जाते तुम!
वापस से मेरी नजरों में
तो कैद कर लेती तुम्हें ,ताउम्र भर के लिए,
ताकि देखूँ तुम्हें हमेशा अपनी नजरो से ।।
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