Sanjeevani Tripathi   (Sanjeevani)
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Joined 15 September 2021


Joined 15 September 2021
31 JAN 2022 AT 1:33


सब नज़र चुराने लगे है क्यों
ये मुझे समझ में नहीं आता
क्या दर्द नहीं दिखता मेरा?
जब आंसू भर के छलक जाता

मैं चीख रही हुं दम भर के, कोई भी निकल के नहीं आता
ये शोर जो मुझमें मचा हुआ, क्या तुम लोगों तक नहीं जाता

जब नजर मिलाती हुं ख़ुद से, विश्वास मेरा कम दिखता है
एक अनजाना सा भय मुझमें, हर पल सांसे भरता है
जैसे की अकेली मैं हो चुकी, इस लंबी चौड़ी दुनिया में
कैसे मैं बताऊं तुम सबको , कोई हल भी नजर नहीं आता

ये जो खाली शब्द मैं चुनती हूं
वो व्यर्थ धरे रह जाते हैं
जिनको आंखों से दिखता है
वो अनदेखा कर जाते हैं

इक अजब अंधेरा छाया है, या सच में कोई साथ नहीं?
आंखे है खुली, बाहें पसरी, पर फिर भी कोई पास नही,

शायद आदत पड़ जायेगी, मुझको भी ऐसे जीने की
तुम सबको जैसे आती है, कर के किनारा चल देने की

या शायद मैं जल जाऊंगी
अपने व्यक्तित्व को जीने में,
जो शोर मचा है, मुझमें अभी,
वो घुट जायेगा सीने में...!!!
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25 JAN 2022 AT 0:29

हवा के जरा सा तेज बहते ही
पत्ते उड़ते है
कही दूर चले जाने को
पर दरख़्त वही रुके रहते है
उन पथिको की आस बन कर
जो उनके नीचे थम कर जीवन की थकान को कम करते है
उन्ही हवाओं की सरसता से।।
— % &

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25 JAN 2022 AT 0:22

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19 SEP 2021 AT 23:05

जाने क्यूं दो शब्द तुमसे कहना मयस्सर नहीं होता आजकल,,।।
ना जाने दिन छोटे होने लगे हैं, या हम??!!

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18 SEP 2021 AT 23:08

खत
एक खत वो भी है,,,
जो नजरें कहती है,,,
बिना किसी कागज़ स्याही या शब्दों के,।।
सिर्फ़ पवित्र भाव से भरी,,।।।

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17 SEP 2021 AT 10:01



गुम रहते हो कहीं कुछ अपनी ही दुनिया में...
तुम्हारी सुनते - सुनते हमारी बारी कभी आती ही नही...।।

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16 SEP 2021 AT 16:48



तुम्हे सोते देखना.... जैसे घाट पर बैठ के सूर्यास्त देखना....
जैसे दिन भर रौशनी बिखेरने के बाद थक, भारी पलकों से भी सुरमई शाम देकर जाता है...।

और सुबह आंखे खुलती है तुम्हारी तो मानो, हल्की लालिमा लिए सूरज वापस आकाश में चढ़ रहा हो.... फिर एक बार, सबकुछ प्रकाशित करने...।।।


--- संजीवनी

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15 SEP 2021 AT 20:03


दिल कुछ ऐसा टूटा है ,, अब लगे की रब ही रूठा है।
जी करता है धूनी रमा लू,, जाके यूं एकांत में ।
दुख ना हो उम्मीदों से ,, और मोह ना हो इस पाश की।
भस्म बने ये सारी काया ,, अंत हो सारी पीड़ा का ।
खो जाए सतरंगी सपने,, नीले इस आकाश में।


नहीं पता क्या भूल हुई थी ,,जन्मों के इतिहास में।
चुका रही हूं स्वश्रुओं से ,,बाकी जितने भाग्य में।
किन पापों की बलि चढ़ गए ,, जीवन सारे पल।
अपने मन के क्रंदन की ही,, गूंज सुनूं आकाश ।


---संजीवनी

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