इस देह की अपनी मनोदशा से प्रतिदिन
एक ही आत्मनिवेदन होता है; कि
तुम्हारी प्रतीक्षा में बैठी आत्मा को
शून्यता में विलीन कर दे,
पर उन सभी स्मृति और भूली बिसरी
गतिविधियों और रीति रिवाजों के मध्य
सृजित और स्थापित हुए
हमारे अनगढ़ और रूपाकार प्रेम ने
मुझे तुम्हारे वापस आने तक के लिए प्रतीक्षारत कर रखा है,
इस प्रतीक्षा में तुम्हारे लौट आने का स्वाद
उमंगित कर देता है रोम रोम को
सिहरा देता है मन में उन
नवसृजित अंकुरित अनुभवों को,
जो उपजा उस तालाब की ठंडी सिहरन में,
जो पनपा उन गरजते मेघों के कम्पन में,
जो फूला-फला उस सांझली लाली की पुलकन में,
जिसने परिभाषित कर लिया अपना स्वरूप
हमारे अर्धनिर्मित किशोरावस्था में,
जहां हमें अलगाव का भास होते हुए भी
प्रेम की सभी संभावित संयोगों को
हमने मिलकर प्रेममत्त और अभिलाषित बनाया था...
-