Sangraam A   (SANGRAAM)
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Joined 3 June 2020


Joined 3 June 2020
21 FEB AT 22:29

जब मैं जन्मा, दो आंखें, दो कान ही तो थे ,
फिर ये बुर्का, ताकिया, टीका किसने लगाया,

जब मैं जन्मा, तो सब नवजात बराबर ही तो थे,
फिर ये जात पात, नस्ल, धर्म किसने सिखाया,

जब में जन्मा,तो सबको हंस के मिलता था,
फिर ये संहार, व्यभिचार, अत्याचार किसने सिखाया,

जब मैं जन्मा,तो सिर्फ माँ का दूध ही तो था,
फिर ये कत्ल कर, लाशों को खाना, किसने सिखाया,

जब जाऊँगा जग से, तो खाली हाथ ही तो होंगे,
फिर ये दंगा फ़साद, ये धन प्रमाद करके क्या पाया,

जब जाऊँगा जग से, तो बस कर्म ही साथ होंगे,
फ़िर ये हिसाब लगाता हूं, क्या खोया, क्या कमाया।









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13 FEB AT 12:39

आंखों में सपने लेके, नज़रों में ख्वाबों को सजाए,
आशाओं के पंख लिए, वो रोज सुबह निकलता है

अल्हड अठखेलियाँ करके, चेहरे पर मुस्कान बसाए,
तिनका तिनका, अपने मुस्तकबिल को संजोता है

जो मिल गया, उसी को अपना मुकद्दर बनाए,
दोस्तो से मिल बांट कर, फिर भी दोस्ती निभाता है,

पूरे परिवार की ज़िम्मेदारी, नन्हे कांधों पर उठाए,
दिन भर दनदनाती गर्मी, फिर भी ना थकता है,

चलता है रोज़ राजू, एक छोटा सा कपड़ा उठा,
कभी किसी की गाड़ी, कभी जूते साफ करता है।

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7 FEB AT 15:48

क्यूँ हिकारत करता है ऐ दिल,
जब पता है तुझे, तेरी मंज़िल,

फिर क्यूँ चाहे कि कोई बाँह थामे,
फिर क्यूँ गाए वही चाहत के नग्मे,

जब दस्तूर तेरी ज़िंदगी का सब्र है,
अब है तन्हाई, फिर आगे कब्र है,

क्यूँ चाहे कि दोस्त बने, नए पुराने,
क्यूँ चाहे गुनगुनाना,पुराने अफ़साने,

चल चुप बैठ कि रात अभी बाकी है,
और कोई नहीं तेरा,बस यार साकी है ।


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5 FEB AT 22:53

ऐसा कहते थे वो,
पर फिर खुद ही,
चुप साध जाते थे वो,

शायद कुछ हमी घमर थे,
क्यूंकि ज़मज़मा सुन हमारा,
हमें छोड़ गए थे वो!

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2 FEB AT 19:00

क्या कहूँ...

सोचा था कलम उठाऊं, कुछ अच्छा कहूँ,
कुछ दिल को छूता, कुछ कहकशां कहूँ,

सोचा था, रोशनी पर कुछ कहूँगा, पर कैसे कहूँ,
धधकता हूं, लेकिन सूरज सम प्रकाशित तो नहीं हूं मैं,

सोचा था, अंधकार पर कुछ कहूँगा, पर कैसे कहूँ,
स्याह हूँ , लेकिन रजनी सम वक्त का पाबंद तो नहीं हूं मैं,

सोचा था, खुशी पर कुछ कहूँगा, पर कैसे कहूँ,
मुस्कराता हूँ , लेकिन शिशु सम उल्लासित तो नहीं हूं मैं,

सोचा था, खुशबू पर कुछ कहूँगा, पर कैसे कहूँ,
जिन्दा हूँ , लेकिन फूल सम कुसुमित तो नहीं हूं मैं,

तो जिंदगी, तू ही फैसला कर मेरे वज़ूद का ,
बहुत कह चुका, अब और कुछ नहीं कहूंगा मैं।



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25 JAN AT 19:00

वक्त बदलता रहता है, कभी कह कर,कभी चुपके से,
वक्त बदलता रहता है, कभी सन कर, कभी धीरे से,

तुम चलो या ना चलो, ये वक्त गुज़रता जाएगा,
तुम देखते रह जाओगे, ये आगे बढ़ जाएगा,

तो उठो चलो ऐ राही, सत्य को स्वीकार करो,
दम भरो, सिर उठा, फिर सिंह हुंकार करो,

कुछ आयेंगे नए साथी, कुछ पुराने चले जाएंगे,
इस लंबे सफर में, ये मंज़र यूँही आयेंगे जाएंगे,

यही तो है जीवन चक्र, जो निरंतर चलता रहता है,
वक्त का क्या है, ये वक्त तो बस बदलता रहता है।

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8 JAN AT 23:18

दिल का माहौल मत बिगाडो
कि दिल अभी सोया सा है

अभी अभी फिर चोट खाई है
जिन्दा है पर खोया सा है

कल उठेगा फिर एक नया साथी तलाशने को
बस आज सहमा है , थोड़ा रोया सा है

दिल का माहौल मत बिगाडो
कि दिल अभी सोया सा है ।

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8 JAN AT 1:02

वो चंद रुपयों के लिए अपना शरीर बेचती है,
पर जीती है सर उठा के, ना अपना ज़मीर बेचती है।

कभी बच्चों को, तो कभी बूढे मां बाप को देखती है,
उनकी भूख मिटाने को रोज़, अपना गिरेबां चीरती है,
पर जीती है सर उठा के, ना अपना ज़मीर बेचती है ।

तुम्हारी उठी उँगलियों से रोज़, रूह चीरती है,
तुम्हारे पाप छुपाने को ,अपनी जुबां भींचती है,
पर जीती है सर उठा के, ना अपना ज़मीर बेचती है ।

कभी रोती है अंधेरे में, कभी चुप से आंसू बहाती है ,
तुम्हें खुश करने को, मुँह पर उफ्फ तक ना लाती है,
पर जीती है सर उठा के, ना अपना ज़मीर बेचती है।

ना रिश्ता, ना जायदाद, ना प्यार मांगती है,
बस चंद लफ़्ज़ इज़्ज़त के उधार मांगती है,
हाँ, वो चंद रुपयों के लिए अपना शरीर बेचती है ।

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5 JAN AT 23:47

सही तो है, किसी को पढ़ाने को थोडे ना लिखा था
बस दिल में इक टीस थी, और कलम वहीँ प़डा था

सही तो है, तुमने कब साथ चलने को कहा था,
बस तुम वहां से निकले थे, और मैं पास ही खडा था

सही तो है, तुम्हें अपने मंज़िल, अपने रास्तों का पता था
बस ना समझा तुम्हारे इरादे, मैं ही तो अहमक बडा था

सही तो है, तुम्हें वो सब मिला जो तुम्हें चाहिये था
बस मैं तो था खिदमतगार, हदफ पहुंचने का ज़रिया था

सही तो है, तुम खुश थे और सामने तुम्हारे सारा जहां था
बस मैं तो अपने स्याह मुकद्दर से ,नजरें चार किए था

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30 DEC 2023 AT 18:35

चलो तुम खुश रहो,
हम तो खैर, नाखुश ही सही,
चलो तुम मुस्कुराते रहो,
हम तो खैर, उदास ही सही,

ये रोशनी ये रंगीनियाँ, तुम्हें मुबारक,
हम तो खैर, बर्बाद ही सही ।

शायद खता हमारी थी,
हमने ही तो की यारी थी,
तो फिर क्यों शिकवा करें,
शायद नासमझ हैं हम ही,

तुम्हें मिला जो चाहिए था,
हम तो खैर, गरीब ही सही ।

हमने लगा वो तुम्हारा प्यार था,
पर नहीं, वो तो एक करार था,
जिसमें तुमने सब कुछ पाया,
और हमने सब यूँही गंवाया,

चलो, तुम जीत गये,
हम तो खैर, विजित ही सही। ।

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