भीतर के लावे को जब उलीचने लगता है मन
एक कविता का जन्म तय है
इस लावे की सारी संतानें
कभी-कभी झंडा उठा कर खड़ी हो जाती हैं
सवाल करती हैं...
"तुमसे जन्म लेने की ये कैसी त्रासदी है
हम में से कोई भी रूपगर्विता नहीं हो सकी
किसी को श्रृंगारित नहीं किया तुमने
किसी को महावर नहीं लगाई
किसी ने मेहंदी नहीं रचाई
वही कसक, वही दर्द, वही टूटन
क्या पाया तुमसे जन्म ले कर
वही आधा अधूरापन"
क्या कहूँ उनसे
लावे की संतानें थीं वो
प्रेम की नहीं
कि महावर लगे पाँवों से काग़ज़ पर उतरें
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